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पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/६६७

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६६६ कण्ठरोग अत्यन्त कष्ट पाता है। इस रोगमें मधु पिलाना' खेद निकलनेसे दी घण्ट के अन्तरसे माकु रियास चाहिये। २ भाग काबेनेट अव सोडा और १भाग खिलाते हैं। रोग अत्यन्त कठिन होनेपर रसको ग्रे-पाउडर मिला दो ग्रेनसे पांच ग्रेनतक प्रत्यह तीन- व्यवहार करते हैं। सिवा इसके सलफर, साइलिसिया, बार खिलाते हैं। लाइमवाटर, विस्मथ, चक इत्यादि | आर्सेनिक, एसिड नाइटिक प्रभृतिको भी प्रयोगमें ला भी उपकारक है। सकते है। होमियोपाथिक मतमें मुलायम रूईसे बोराक्सको वकछादन ( Diphtheria)-कण्ठ के मध्य श्लेष्माको बाहर लगाना चाहिये। अधिक परिमाणसे कफ झिल्लीपर प्रदाह-जनित कृत्रिम झिल्ली ( False mem. निकलने या क्षत पड़ने पर मारकुरियास, पीछे सलफर brane) पड़ जाती है। इस कण्ठरोगको डाकर दिन और रातको खिलाते हैं। अधिक दूध गिरने डिफ़थिरिया कहते हैं। (अपर नाम Cynanche वा अम्ल लगनेसे पलसाटिला या नक्स देना चाहिये। Maligna वा Angina Maligna है) यह रोग १ रोग कठिन हो जानेपर छह या बारह घण्टे के अन्तर वर्षसे ८ वर्ष वयस पर्यन्त प्रायः शिशवोंको अधिक प्रथम आर्सेनिक, पौछे एसिड नाइटिक प्रयोग करना लग जाता है। वाह्य वायु और शरीरस्थ रक्त के दोषसे चाहिये। यह रोग उत्पन्न होता है। कृत्रिम झिल्लो प्रथम सांघातिक कलशोथ (विदारी)-यह रोगं सचराचर गलग्रन्थि वा तालुमें पड़तो, फिर कभी तालुमूल और शरत्कालके प्रारम्भमें देख पड़ता और बहुव्यापी एवं कभी खासनाली ( Larynx and Trachea ) पर्यन्त संक्रामक ठहरता है। इसका लक्षण शोत, कम्पन, | बढ़ चलतो है। श्वासनालोमें यह रोग उत्पन्न होनेसे ताप, दौर्बल्य, हृदयमें वेदना, वमन आर भेद है। मृत्य रोके नहीं सकता। चक्षु जलमय और ज्वालायुक्त हो जाते हैं। श्रोष्ठ लक्षण-कण्ठ के भीतर भिक झिल्ली लाल और अधिक रक्तवर्ण देख पड़ते हैं। नाड़ी दुर्बल लगती फलो देखाती है। सहज पोड़ामें ज्वर पाता, गलेका है। जिह्वा खेत पड़ जाती है। निगलने में अति दुःख बढ़ जाता, ग्रोवाका ग्रन्थि कुछ सूजा देखाता कष्ट बोध होता है। कण्ठ फलकर लाल पड़ जाता और चूंट निगलने में रोगो कष्ट पाता है। फिर स्वर है। कण्ठपर नाना आकारमें नालोके क्षत उत्पन्न | टूट जाता, नासाके रन्धमें शब्द समाता और पल्प पल्प होते हैं। कभी-कभी यह नाली ऊपर नासिका और | श्वास भो पाता है। इपिण्ड असार रहनेसे सहज नीचे नली पर्यन्त फैल जाती है। पहलेसे शरीर प्रव- | हो मृत्य दौड़ सकता है। कण्ठके स्थानविशेष पर सब लगता है। रोगी मध्य मध्य अण्डबण्ड बक देता आक्रमण होनेसे रोगका लक्षण भी बदल जाता है। है। निवासमें दुष्ट गन्ध पाता और रोगीके हृदय में नासात्वकछादन (Nasal Diphtheria)-किसी भी दुर्गन्ध छा जाता है। गलितावस्था उपस्थित किसी चिकित्सकके मतमें यह रोग नासासे निकल होनेपर कम्पन बढ़ता, नाड़ोका वेग दुर्बल पड़ता, गलदेश पर्यन्त फैलता, किन्तु सचराचर गलदेशसे चल मुख नौचेको झुकता, कठिन भेद लगता और नासिका नासिकातक पहुंचता है। इस रोगमें खासरोधको तथा मुखसे रक्त गिरता है। उक्त लक्षण झलकनसे सम्भावना रहती और प्रायः मृत्युको दौड़ लगा रोग साङ्घातिक समझा जाता है। करती है। चिकित्सा-इस रोगमें पहले ही अधिक ज्वर चढ़ने २ त्वछादनिक काश (Diphtheric Croup)-इस पर दो घण्टे के अन्तरसे एकोनाइट देना चाहिये। रोगमें धड़ाधड़ काशका लक्षच झलकता, जो साङ्घा- उसके बाद बैलेडोना चलता है। मुखमें विस्वाद एवं तिक निकलता है। ट्रमन्ध रहने, गाढ़ कफ गिरने, शीत लगने, कम्पन | ३ वहिस्त कछादन (Cutanedus Diphtheria)- बदने, बीच बीच शरीर उष्ण पड़ने और रात्रिको सचराचर कण्ठरोग होनेपर वकके जिस स्थानमें चत