पृष्ठ:हिंदी विश्वकोष भाग ३.djvu/६८८

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कदर्य-कदलो कदथ-चि-व-त। १ मन्दीकत, बिगाड़ा हुआ।। हो काल इसमें फल लगता है। फिर भी कदलो २विकलोवत, बेचन किया हुपा। ग्रीष्म कालकोही अधिक उपजती और फलमें विशेष कदर्य (स० वि० ) कुत्सितो ऽयः खामो, कुगतीति | कोमलता एवं मधुरता रहती है। समासः। १ क्षुद्र, कमीना, छोटा । २ जपण, कच्च स । बदलोका उजितत्त्व-इसको उद्भिदतत्त्ववेत्ता कोमल- स्मृतिशास्त्र के मतस जो लोभो व्यक्ति आत्मा, धर्मकार्य काण्ड वृक्षोंको श्रेयों में गिनते हैं। जिसके काण्ड और स्त्रोपुत्र प्रभृतिको कष्ट दै धनका ढेर लगाता, अर्थात् तनमें काठका भाग अल्प प्राता, वही वही कदयं कहाता है। ३ प्रपाद्य, नागवार, बुरा।। वृक्ष कोमककाण्ड कहाता है। किन्तु वास्तविक कदर्यता (सं० स्त्री०) १ लोभ, कञ्ज सो। २ क्षुद्रता, कदल्ली में कोई काण्ड नहीं रहता। जो काण्ड मान कमीनापन। ३बुराई। लिया जाता, वह पत्रका शेष भाग अर्थात काह- कदर्यभाव (स० पु०) कदयस्य भावः, ६-तत्।। कोष देखाता है। हिन्दी में केलेका बकला कहान- १ कुत्सित भाव, बुरी हालत। २ अश्लील भाव, वाला अंश उसका समष्टिमात्र है। कदलीवृक्ष फोहश बातचीत। पिण्डमूल (roots, stalks ) होता है। इसो पिण्ड- कदल (सं० पु. ) कद वृषादित्वात् कलच् । १ कदली. मूलसे पत्र निकलते हैं। पिण्डमूलके मध्यस्खलसे वृक्ष, केले का पेड़। २ पृश्चिपर्णी । ३ शाल्मलीवक्ष, एक सरल गोलाकार खेतवण मज्जा (Pith) उत्- सेमरका पेड़। ४ डिम्बिका। पन्न होती है। इसोको चारो ओर स्तर-स्तरमें कदलक (स० पु०) कदल स्वाथ कन्। कदली कोष विप काण्डकी भांति प्राकार धारण करते हैं। वृक्ष, केले का पेड़। कदलोके कोमलकाण्ड कहानका यही कारण है। कदला (सं० स्त्री०) कदल-टाप। १ कदलोवृक्ष, काल पानसे उक्त मज्जा पुष्पदण्डमें परिणत हा जाती केलेका पेड़। २ पृश्रिपर्णी । है। जब नतन पत्र निकलता, तब यह मूलसे उपज कदलिका, कदलो देखो। और मज्जाकं पाखपर लटक ढाल सूंड जैसा बढ़ने कदली (स. स्त्री०) कदल गौरादित्वात् डोष । लगता पौर अन्तको कक्षसे बाहर हो पत्र दिया षिदगौरादिभ्यश्च । पा ४१३१ । पोषधिविशेष, केला। (Musa • करता है। कदलोके पत्रका अंश अत्यन्त विस्तात sapientum) यह उष्णकटिबन्ध प्रदेशमें होनेवाला। होता है। एक-एक पत्र ६८ फोट दोघ ओर २ फौट एकप्रकारका मिष्ट फल है। युक्तप्रदेशको चन्तित | विस्तृत नपता है। पत्रको मध्य पशु कासे किनारे तक भाषामें इसे केला कहते हैं। इसका संस्कृत पर्याय | एक लम्बी-लम्बी सरल शिरा पड़ती है। इन सरल वारण-वुमा, रम्भा, मोचा, अंशुमत्फला, कदल, शिरावोंके मध्य अश्वस्थ-पत्रके जाल की भांति सूचना काष्ठल, वारणवुषा, बारवुषा, सुफला, सुकुमार, विन्यास नहीं लगता। सुतरां थोड़ा प्रवन्न वायु लगते सुकत्फला, गुच्छफला, इस्तिविषाणो, गुच्छदन्ति का, ही यह शिरा फट जाता है। कदलो वृक्षका पन- निःसारा, राजष्टा, बाल कप्रिया, अरुस्तम्भा, भानुफत्ता, भाग, वृत्तभाग और काण्डकोष समस्त हो अंशविशिष्ट वनलक्ष्मी, कदलक, मोचक, रोचक, लोचक, वारण रहता है। मज्जा बहुत कोमल होतो है। यह केवल वल्लभा पौर चर्मखती है। उक्त सकल नामों को पक्को- पको कुछ रसाधार शिरावोंका समष्टिमात्र है। सार्थकता यथास्थान विवृत होगी। मजाका दण्ड ही बढ़ कर पुष्पदण्ड बन जाता है। __ भारतवर्ष ही कदलीका आदि वासस्थान है। कलेके फूलको मोचा कहते हैं। मोचा पानसे पहले इसलिये यह इस देशके नाना कार्यों में व्यवहत होतो। कदलीके स्कन्धदेशसे एक 'असिफलक' निकलता, है। इसको बराबर पावश्यकीय फल दूसरा नहीं। जिसका नाम पत्तेका मोचा पड़ता है। पत्तेवाले कटमी इतपत्र भी बहत होती है। वत्सरके सकला मोचेके भीतर ही मोचा रहता है। मोचा पण