पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/२९८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ग्लान' ग्वालककरी अक्ष । पासा । ५. अक्षपेटिका । ६. अक्ष की आय या प्राप्ति । ग्वायख@-संज्ञा पुं० [सं० गवाक्ष, हिं० गौस, गौखा] दे० 'गोवा ७. जुना खिलानेवाला व्यक्ति (को॰] । उ.--सिल विकट पास सुन्वेण रे, तिरसूल ग्वायख तेगरे। ग्लान'-वि० [सं०] १. ज्वर आदि रोगों से पीड़ित । बीमार रोगी। । --रघु० रू0, पृ०२२४ । २. थका हुमा । ३. कमजोर । ___ ग्वार--संशा खी० [सं० गोराणी] एक वापिक पौधा जिसकी फलियों ग्लान-संज्ञा स्त्री० १. दीनता । २. थकान । श्रांति (को०)। ३. की तरकारी और बीजों की दाल होती है । फौरी। खुरची।" बीमारी । रोग (को०)। विशेष-इसकी कई जातियाँ होती हैं । इसकी पत्तियों की खाद .. ग्लानि--संज्ञा स्त्री० [सं०] [वि. ग्लेय] १. शारीरिक या मानसिक बहुत अच्छी होती है और उन्हें चीपाए बहुत चाव से खाते शिथिलता । अनुत्साह । खेद । अक्षमता । २.. मन की एक हैं । कहीं कहीं इसे अदरक के पौधों पर छाया करने के लिये वृत्ति जिसमें अपने किसी की बुराई या दोप यादिको देखकर भी लगाते हैं । यह वर्मा के प्रारंभ में बोई जाती है और जाड़े अनुत्साह, अरुचि और खिन्नता उत्पन्न होती है । पश्चात्ताप । के मध्य में तैयार हो जाती है। इसमें पीले रंग के एक प्रकार .' ३. साहित्य में वीभत्स रस का एक स्थायी भाव । के लंबे फूल भी लगते हैं। वैद्यक में इसके फली को वादी, विशेप साहित्यदर्पण के अनुसार यह व्यभिचारी भाव के मधुर, भारी, दस्तावर, पित्तनाशक, दीपक और कफकारक अंतर्गत है । रति, परिश्रम, मनस्ताप और भूख, प्यास आदि माना है और पत्तों को रतौंधी दूर करनेवाला और ' उत्पन्न दुर्वलता ही ग्लानि है। इसमें शरीर काँपने लगता है, पित्तनाशक कहा है। शक्ति घट जाती है और किसी कार्य के करने का उत्साह उत्साह ग्वारनंट--संज्ञा स्त्री॰ [अं० गारनेट] एक प्रकार का वढ़िया रंगीन नहीं होता। ४. पतन । ह्रास । उ०--जव जव धर्म की ग्लानि होती है और रेशमी कपड़ा। . अधर्म का अभ्युत्थान होता है, तब युग युग में वह अवतार ग्वारनेट----संश बी० [अं० गारनेट) दे० 'ग्वारनट'। लेता है।--हिंदू सभ्यता, पृ० १८८। ग्वारपाग-संचा पुं० [सं० कुमारी+पाठा] घीकुमार । ग्लानी--संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ग्लानि' । उ०-धर्म ग्लानी भई ग्वारफली--संशा सी० [हिं० ग्वार + फली | ग्वार नामक पौधे की . जब ही जब, तब तब तुम वपु धारयो ।-दो सौ बावन०, भा० . फली जिसकी तरकारी बनती है । यि० दे० 'पवार'। . १, पृ० १६२। ग्वारि --संज्ञा स्त्री० [हिं० ग्वाली ] दे० 'ग्वालिन'। 30-- . ग्लास-संघा पुं० [अं०] १. शीशा । २. दे० 'गिलास'। पृछति पाहुनि ग्वारि हा हा हो मेरी प्राली, कहा नाउ, को ग्लास्तु-वि० [सं०] श्रांत । थका हुआ [को०) । है चित वित्त को चोर ।-नंद० ग्रं॰, पृ० ३४२ । .... ग्लूकोज--संता पुं० [अं० ग्लूकोज] १. फलों की चीनी। २. अंगूर वारिया--संज्ञा पुं० [हिं० ग्वार+इया (प्रत्य॰)] दे० 'ग्वाल... की चीनी। जो रासायनिक रीति से तैयार की जाती है। उ०--वारिया को भेष धरः गाँइनि में पावै ।-छीत । उ०-बच्चे को ग्लूकोज पिलाने का प्रयत्न करके विफल पृ०५४ 1 होकर सिर झुकाए थी।--जिप्सी, पृ०५११ । ग्वारिन -संघा सी० [हिं० ग्वार+इन (प्रत्य. .. . ग्लेशियर-संज्ञा पुं० [अं०] हिमखंड । हिमशिला जो गतिशील होती ग्वार' है। यह धीरे धीरे चलकर नीचे उतरता जाता है और फिर . किसी नदी में मिल जाता है। उ०--ग्रजपथों से जा जाकर ग्वारिनर-संक्षा स्त्री० [हिं० ग्वालिन] 1. ग्वाले की स्त्री । ग्वाती। पहाड़ों पर के सरोवरों और ग्लेशियरों में पांडवों के तपस्या ' २. गोपी। स्थल और नए तीर्थों का आविष्कार करना भी आसान नहीं ग्वारो-िसंक्षा नौ [हिं०] दे० पवार' । उ०-फनी फूल निमोना ... है।--किन्नर०, पृ०६३ . डिड़सा रूप रतालू ग्वारी जो ।-रघुनाय (शब्द०)। ग्लो- संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा । २. कपूर । ३. पृथ्वी [को०)। ग्वारों /-संज्ञा स्त्री० [हिं० ग्वालो] १. ग्वाला की स्त्री। २. . . ग्लौता-० [सं० ग्लोतृ] श्रांत । थका हुआ [को०] . :. गोपी। ग्वाड़ा --संघा पुं० [सं० गुण्ड] १. घेरा । वृत्त.। २. किसी मकान के ग्वाल-अंधा पुं० [सं० गो+पाल, प्रा. गोवाल] १. अहीर । २. . चारों ओर का बाड़ा। ३. चहारदीवारी के अंदिर घिरा हुमा एक छंद का नाम जिसे सार और शान भी कहते हैं। इसके . . स्थान । उ०----वांडा बिच पासण जिति मांडौ।-गोरख.०, प्रत्येक चरण में दो अक्षर होते हैं, जिनमें से पहला गुरु पोर . पृ० २३६ . ... दूसरा लघु होता है। जैसे -- सवाल । धार । कृपए । सार। . ग्वाड़ा--संज्ञा पुं० [हिं० ग्वाँडा] दे ग्वाडा'। उ०-धवला सू' ग्वालककड़ी-संश की० [हिं० ग्वाल+ककड़ी ] जंगली चिवड़ा । राज धपी चंगी दीस ग्वाड़ ।- वाँकी० • ग्रं, भा० १, जिसके बीज, जड़ और पत्तियाँ आदि योपधि के काम में आता . . हैं । इसमें छोटे छोटे फल भी लगते हैं जो पकने पर गहरे लाल ग्वाड़ा@--संज्ञा पुं० [ हि- ग्वाड़ा] उ०-पवाड़ा मह आनंद रंग के हो जाते हैं। . ... ... .. उपनौं। कबीर ग्रं॰, पृ० १३७ । ग्वालककरी-संशा बी० [हिं० ग्वाल-+-ककड़ी] दे० 'रवालककड़ो'।