पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/४०८

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१४५७ चपणि चर्मरंगा-संशा सी० सं० चर्मरगा] एक प्रकार की लता जिसे का अनुष्ठान और निपिद का त्याग। ७. खाने की जिया पा प्रावर्तकी और भगवद्वल्ली भी कहते हैं । भाव 1 भक्षण । ८. चलने की मिया का भाव । गमन । चर्मरी-संघाली (सं०] एक प्रकार की लता जिसका फल बहुत चयपिरीपत् संशपुं० [+] एक स्थान पर न रहना, बलि विला होता है । इसकी गणना स्थावर विपों में की गई है। निद्वतापूर्वक चागे पोर विचरना । (जन घन)। . 'चर्मरु-संहा पु० [सं०] चमार [को०) । चर-संक्षा (अनु०] कोई चीज पाइने ने उत्पन्न ध्वनि।मे, कागज चमंत्र--संज्ञा पुं॰ [सं०] चमार । पपड़ा, चमसा प्रादि। चर्मवंश-संडा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक बाजा जो मुह से विशेप-इसका कि० वि० म्हप में व्यवहार होता है प्रतः लिग - निर्वचन अनावश्यक है। फूककर बजाया जाता था। चर्मवसन--संप्या पुं० [सं०] महादेव । शिव । महा-चरं चरं फादनाचरं परं झी मावाज पैदा करते हुए फाढ़ते जाना। चर्मवाद्य-संग पुं० [सं०] एसे वाद्य जिनपर चमड़ा मढ़ा होता है, चर्राना-कि०म० [यनु०] १. लाड़ी यादि का टूटने या तयाने जैसे, ढोल, नगाड़ा प्रादि [को०] । के समय चर चर शब्द परना। २. शरीर को थोड़ा छिल .: चर्मवृक्ष-संज्ञा पुं० [सं०] भोजपत्र का पेड़। जाने या पाय पर जमी हुई पपड़ी प्रादि के उाद जाने के चर्मव्यवसायी-संग्रा पुं० [सं० चर्मव्यसायिन] वह व्यक्ति जो चमड़े कारण गुजली या मुरमुरी मिली हुई हलकी पीड़ा होना।' का व्यापार करे (को०)। ३. युती और कमाई मानण (जैसा प्रायः जाड़े में चर्मसंभवा--संज्ञा ली [सं० चमसम्भवा ] इलायची । होता है) किसी अंग में तनाव और हलसी पीड़ा होना। चर्मसार--संक्षा पुं० [सं०] वैद्यक में शरीर के अंतर्गत चमड़े के अंदर जैरो,-बहुत दिनों से तेल नहीं लगाया, इससे मदन पररावा रहनेवाला वह रस जो खाए हुए पदार्थों से बनता है। है । ४. किसी बात की वेगपना इच्छा होना । किसी बात की चर्मात-~-संश पुं० [सं० चन्ति ] सुश्रु त के अनुसार एक प्रकार का आवश्यकता से अधिक शोर मौके चाह होना । जैसे,-- उपयंत्र जिसका व्यवहार प्राचीन काल में चीर फाड़ मादि शोक चर्शना, मुहब्बत चर्राना। में होता था। चरी-संघा सौ० [हिं० चर्राना] लगती हुई व्यंगपूर्ण बात । चुटोली बात । चर्माभस्- संज्ञा पुं० [सं० चम्मिस् चमड़े में का रस । चमड़े के , अंदर होनेवाला रस जो खाए हुए पदार्थों से बनता है ।। क्रि० प्र० छोड़ना ।-योलमा -सुगना । चर्मसार । लसीका। चर्वण-संशा पुं० [सं० [वि० चयं ] 1. किसी चीज को मुंह में . रखकर दौतों से बराबर तोड़ने की जिया चवाना। २. वह चारख्य- संज्ञा पुं० [सं०] कोढ़ रोग का भेद । वस्तु जो चबाई जाय । ३. शुना हुमा दाना प्रादि जो पाकर चर्मानला-संघा सी० [सं०] प्राचीन काल की एक नदी का नाम । खाया जाता है। ना । बहरी । दाना। ४. प्रास्वादन चमतिरंजन-संधा पुं० [सं० चर्मानुरंजन] बदन रेंगने के लिये प्रयुक्त (को०)। ५. रसास्वादन (को०] । सिंदूर की तरह का एक द्रव्य [को०] । चर्वणा-संदा पौ. [१०] १. नर्वण करना। २. चर्वण करनेवाला चरि-संज्ञा पुं० [सं०] चर्मकार । चमार । दांत । ३. आस्वादन । ४. रसास्वादन [को०)। चर्मारक-संश पुं० [सं०] दे॰ 'चर्मानुरंजन' (को॰) । चर्वा-संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चप्पड़ | चांटा। कार । २. चबाने का चर्मावकर्तन--संक्षा पुं० [सं०] चमड़े का काम [को०] । कार्य या स्थिति [को०)। चविकर्ता-संशा पुं० [ चर्मावकर्तृ ] दे० 'चर्मकार' (फो०)। चर्वित-वि० [सं०] १. चबाया हुमा । दाँतों से कुचला हुप्रा । २. चविकर्ती-संज्ञा पुं॰ [सं० चर्मावफर्तृन् ] दे० 'चर्मकार' (को०] । प्रास्वादित (फो०) । ३. रसास्वादित (को॰) । चर्मिक-संता पुं० [सं०] पह जो ढाल में लेकर लड़े। हाथ में चर्वितचर्वण-संहा. [सं०] जो हो चुका हो, उसे फिर से करना। ढाल लेकर लड़नेवाला योद्धा । किसी किए हुए काम या कही गई बात को फिर से करना चर्मिक---- वि० ढालवाला या जिसके हाथ में ढाल हो। या कहना । पिष्टपेपण । चर्मी'.---संज्ञा पुं० [सं० पर्मिन् ] १. चर्म धारण करनेवाला सैनिक। चवितपात्र---संघा पुं० [सं०] जगालदान । पीकदान (फो०] । . २ भोजपत्र का वृक्ष । ३. केला । ४. २ 'चार्मिक' । चविल-संधा पुं० [सं०] गाजर की तरह एक अंग्रेजी तरकारी जो कुमार कातिक में पारियों में बोई जाती है। • चर्मी--वि० १. ढालवाला । २. चमड़ेवाला या चमड़े का । चळ-वि० [सं०] १. चबाने योग्य । २. जो चबाकर खाया जाय। चर्य-वि० [सं०] १. जो करने योग्य हो। २. जिसका करना चळ-संक्षा पुं० माहार । भोजन । खाद्य (को०)। आवश्यक हो । कर्तव्य। चर्षरिण'-संवा पुं० [सं०] मनुष्य । यादगी। चर्या-- शोक सिं०] १ वह जो किया जाय । पाचरण । जैसे,- चर्षणिः -संशा गडी० कुलटा को । बंधकी। व्रतचर्या, दिनचर्या ग्रादि । २. प्राचार । चाल चलन । ३. 'चर्पणि-वि०१.निरीक्षक । पर्यवेक्षक । २. गमनशील । नतिशील । कामकाज । ४. बत्ति। जीविका । ५. सेवा । ६. विहित कार्य फुर्तीला । सक्रिय [को०] ।