पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/११२

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बसिौरा २४०५ बसेरा करोरी न्यारी हरि आपन गया । नाहिन बसात लाल कछु आरि । हारि जोहारि जो करत बसीठी प्रथमहि प्रथम तुम सों सबै ग्वाल इकठयाँ।-सूर। (घ) बिनु बरजे धौं चिन्हार ।-सूर (ख) बिकानी हरिमुख की मुसकानि । का कहै बरज्यो का पैजाय । जो जिय में ठाडो रहतासों परबस भई फिरति सँग निसि दिन सहज परी यह बानि । कहा बसाय । -बिहारी (8) तासों बसाइ कहा कहि नैनन निरखि बसीठी कीन्हों मनु मिलयो पय पानि । गहि केशव कामलता तर ते दुरई।--केशव । (च) विजन बाग रतिनाथ लाज निज पुर ते हरि को सौंपी आनि ।-सूर । सकरी गली भयो अँधेरो आय। कोऊ तोहि गहै जो इत (ग) सेतु बाँधि कषि सेन जिमि, उतरी सागर पार । गया तो फिर कहा बसाय--पद्माकर । वसीठी बीरघर जेहि विधि बालिकुमार । —तुलसी । कि० अ० [हिं० बास ] बास देना । महकना । उ०—(क) | बसीत-संज्ञा पुं० [अ० ] एक यंत्र का नाम जो जहाज़ पर सूर्य बेलि कुढंगी फल खुरी फुलवा कुबुधि बसाय । मूल विनासी | का अक्षांश देखने के लिये रहता है। कमान । तूमरी सरो पात करुभाय 1--कबीर (ख) जब लगि | बसीना *-संज्ञा पुं० [हिं० बसना | रहायस । रहन । आँबहिं डाम न होई । तब लगि सुगंध बसाय न कोई । | यौ०-बास बसीना । 30-इनही ते बज बास बसीनो। -जायसी । (ग) धूमउ तजइ सहज करुआई । अगर हम सब अहिर जाति मतिहीनो।--सूर । प्रसंग सुगंध बसाई। सुलसी। बसु-संज्ञा पुं० दे० "वसु"। बसिऔरा-संज्ञा पुं० [हिं० बासी ] (1) वर्ष की कुछ तिथियाँ बसुकला-संज्ञा पुं० [सं० वसुकला ] एक वर्ण वृत्त जिमे तारक भी जिनमें स्त्रियाँ बासी भोजन खाती और बासी पानी पीती हैं। (२) बासी भोजन । बसुदेव-संज्ञा पुं० दे. "वसुदेव" । बसिया-वि० दे० "बासी"। बसुधा-संज्ञा स्त्री० दे० "वसुधा"। बसियाना-क्रि० अ० [हिं० बासी, या बसिया+ना (प्रत्य॰)] बासी | वसुमती-संज्ञा स्त्री.दे. "वसुमती"। हो जाना । ताज़ा न रह जाना । यसुला-संज्ञा पुं० दे. "बसूला"। बसिष्ठ-संशा पुं० दे. “वसिष्ठ"। बसूला-संशा पुं० [सं० बासि+ल (प्रत्य॰)] [स्त्री. अल्प० बमली ] बसीकत, बसीगत-संज्ञा स्त्री० [हिं. बसना ] (1) बस्ती । एक हथियार जिससे बढ़ई लकड़ी छीलते और गढ़ते हैं। आयादी। (२) बसने का भाव वा फ्रिया । रहन। विशेष—यह बॅट लगा हुआ चार पाँच अंगुल चौदा लोहे का बसीकर-वि० [सं० वशीकर ] वशीकर । वश में करनेवाला ।! टुकदा होता है जो धार के ऊपर बहुत भारी और मोटा उ.-अखिया अखिया सों सकाय मिलाय हिलाय रिझाय होता है। यह ऊपर से नीचे की ओर चलाया जाता है। हियो हरिबो । बतियाँ चितचोरन चेटक सी रस चार उ.-मातु कुमति बढ़ई अघमूला । तेहि हमरे हित कीन्ह चरित्रन ऊचरियो । रसखानि के प्रान सुधा भरियो अधरान बसूला !-तुलसी। पैत्यों अधरा धरिखो। इतने सब मैन के मोहनी मंत्र | बसूली-संज्ञा स्त्री० [हिं० बभूला ] छोटा बसूला । मंत्र बसीकर सी करियो।-रसखानि ।। बसेंडाई-संज्ञा पुं० [हिं० बास+71 | श्रीबड़ी } पतला बाँस । बसीकरन*-संज्ञा पुं० दे० "वशीकरण"। बसेश-वि० [हिं० बसना ] बसनेवाला । रहनेवाला । उ.- बसीठ-संज्ञा पुं० [सं० अवसृष्ट, प्रा. अवसिद्ध भेजा हुआ ] निपट बसेरे अघ औगुन घनेरे नर नारिऊ अनेरे जगदंब द्रत । संदेसा ले जानेवाला । उ०—(क) प्रथम बसीठ चेरीचेरे है।-तुलसी। पठव सुनु नीती । सीता देइ करहु पुनि प्रीती।-तुलसी। संज्ञा पुं० (१) वह स्थान जहाँ रह कर यात्री रात बिताते हैं। (ख) मधुकर तोहिं कौन सों हेत। जो पै घढ़त रंग तब ऊपर बासा। टिकने की जगह । (२) वह स्थान जहाँ चिड़िया तो होय श्यामता सेत । मोहन सणिनि डारि मोरी ते ठहर कर रात बिताती है। उ०—(क) गये सुमंत तब राउर करि आए मुख प्रीति. । अति शठ ढीठ बसीठ श्याम को पाहीं। देखि भयावन जात डराहीं। धाइ खाइ जनु जाइन हमें सुनावत गीत ।-सूर । (ग) जूझत ही मकराक्ष के हेरा। मानहु विपति-विषाद-बसेरा । तुलसी । (ख) पिय रावण अति दुख पाय । सत्वर श्री रघुनाथ वैदियो बसीठ मूरति चितसरिया चितवति बाल। चितवति अवध बसेरवा पठाय । --केशव । जपि जपि माल ।-रहिमन । बसीठी-संज्ञा स्त्री० [हिं० बसीठ ] दूस का काम । दौत्य ।। मुहा०-बसेरा करना=(१) डेरा करना । निवास करना । संदेशा भुगताने का काम । उ०-(क) हरि मुख निरखत ठहरना । उ०-(क) बहुते को उद्यम परिहरै। निर्भय और नागरि नारि । कमलनयन के कमलबदन पर बारिज बसेरो करै। सूर । (ख) भूला लोग कहै घर मेरा । .बारिज वारि । सुमति सुवरी परस प्रिया रस लंपट मादी। जा परवा में फूल गोला सो घर नाही तेरा । हाथी पोवा