पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/३७३

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मरीचिका २६६४ मरुत् मरीचिका-संजा श्री० [सं०] (1) मृगतृष्णा । सिरोह । (२) और कुछ-रोगनाशक माना गया है। नागबेल । नादबोई। किरण । उ--(क) बारिज बरत बिन बारे वारि दारु 30-अप्ति व्याकुल भई गोपिका नत गिरिधारी । बीच बीच बीचिका मरिका वी छहरी ।—देव । (ख) बुमति है बन छोलि सो देखे बनवारी । बृमा मरुआ कुंद बहसही सेज ब? चहक चमेलिन सों, बेलिन सों मंजु मंमु सौं कहे गांव पसारी । बकुल श्रॉल घट कदम चै ठानी गुंजन मलिंद जाल । तसई मरीचिका दरीचिन के दौबे ही, अजनारी।-सूर। में, छपा की छबीली छबि रहात तत्काल |-देव। पर्या--मरुवक । महतक । फणिजक । प्रस्थपुष्प । रूमीर । मरीचिगर्भ-संशा पु० [सं०] (1) सूर्य । (२) दक्ष मावर्णि कुलम्पौरभ । गंधपत्र । खटपन्न । मन्वंसर में होनेवाले एक प्रकार के देवताओं का गए । संज्ञा पुं० [सं० मंड वा मरू वा अनु० ] (1) मकान की छाजन मरीचिजल-संज्ञा पुं० [सं०] मृगतृष्णा । में सब से ऊपर की बली जिस पर छाजन का ऊपरी मगचितोय-संज्ञा पुं० [सं०] मृगतृष्णा । सिरा रहता है। बड़ेर । (२) जुल्लाहों के करघे में मरीची-वि० [सं० मरीचिन् ] [ स्त्री० भरीचिनी ] किरणयुक्त । लकड़ी का वह टुकड़ा जो उद दालिइत का और आठ जिसमें किरणें हों। अंगुल मोटा होता है और छत की कर्क में जड़ा होता है। संज्ञा पुं० (1) सूर्य। (२) चंद्रमा । (३) हिंगोले में वह ऊपर की लकड़ी जिसमें हिंडोला मरीज़-वि० [अ० ] रोगी । रोग-ग्रस्त । मार । लटकाया जाता है वा हिंडोले को लटकाने की लकड़ी जड़ी मरीना-संका पुं० [स्पेनी मेरिना ] एक प्रकार का बहुत मुलायम वा लगाई जाती है । उ०—कंचन के खंभ मयारि मरुआ ऊनी पतला करना जो मेरीनो नामक भेव के उन से डाही खचित हीरा चिच लाल प्रवाल । रेसम चुनाई नवरतन बनता है। लाई पालनो लटकन बहुत पिरोजा लाल।-सूर । मरु-संग पुं० [सं०] (1) वह भमि जहाँ जल न हो और केवल संज्ञा पुं० [हिं० मॉड ] माद। एलुआ मैदान हो । मरुस्थल । निर्जल स्थान । रेगिस्तान । मरुक-संज्ञा पुं० [सं०] (१) मोर । (२) एक प्रकार का मृग । मरुभमि । (२) वह पर्वत जिसमें जल का अभाव हो। (३) मरकच्छ-सशा पु० [सं० ] गृहत्संहिसा के अनुसार एक प्रदेश मारवाय और उपके आस पास के देश का नाम । (४) मरुभा का नाम । यह दक्षिण दिशा में है और हस्त, चित्रा और नामक पौधा । (५) एक सूर्यवंशी राजा का नाम (६) स्वाती नक्षत्रों के अधिकार में माना गया है। नरकासुर के एक सहचर असुर का नाम । मरकांतार-संशा युं० [सं०] बाल वा रेत का मैदान । रेगिस्तान । मरुआ-संशा पुं० [सं० मरुव ] बन-तुलसी वा बरी की गति के, एक पौधे का नाम । यह पौधा बागों में लगाया जाता है। मरुकुच्छ-संज्ञा पुं० दे० "मरुकुत्स"। इएकी पत्तियाँ बबरी की पत्तियों से कुछ बड़ी. नुकीली. माकुत्स-संशा पुं० [सं० ] वाराही संहिता के अनुसार एक देश मोटी, नरम और चिकनी होती हैं जिनमें से उन गंध का नाम जो कूर्म विभाग के अनुसार पश्चिमोत्तर दिशा में आती है। इसके दल देवताओं पर चढ़ाए जाते हैं। है और जो उत्तराषाढ़, श्रदण और धनिष्ठा नक्षत्रों के इसका पेहद दो हाथ ऊँचा होता है और इसकी अधिकार में है। फुनगी पर कार्तिक अगहन में तुलसी की भाँति मंजरी मरुचीपट्टन-संज्ञा पुं० [सं०] बृहत्सहिंता के अनुसार दक्षिण निकलती है जिसमें नन्हें नन्हें सफेद फूल लाते हैं । फूलों के | दिशा के एक देश का नाम जो हस्त, चित्रा और स्वाती के मद जाने पर बीजों से भरे हुए छोटे छोटे बीज-कांश निकल. अधिकार में है। आते है जिनमें से पकने पर बहुत बीज निकलते हैं। मरुज-संज्ञा पुं० [सं०] (1) नख नामक सुगंधित द्रव्य । (२) ये बीज पानी में पड़ने पर ईसब गोल की तरह फूल्ल घाँस का काला । जाते हैं। यह पौधा बीजों से उगता है; पर यदि इसकी मरुजा-संवा स्त्री० [सं० इंद्रायण की जाति की एक लता जो कोमल टहनी वा फुनगी लगाई जाय तो वह भी लग जाती है। मरुस्थल में होती है। रंगक भेद ये महरा दो प्रकार का होता है, कासा और मरुजाता-संज्ञा स्त्री० [सं०] कपिकच्छ । केवाँच । काँछ। सफेद । काले मरुए का प्रयोग औषधि रूप में नहीं होता और मझटा-संज्ञा स्त्री० [सं० ] वह स्त्री जिसका ललाट ऊँचा हो। केवल फूल आदि के साथ देवताओं पर चढ़ाने के काम आता | मरत-संज्ञा पुं० [सं०] (9) एक देवगण का नाम । वेदों में है है। सफेद मरुआ ओषधियों में काम आता है। वैधक में रुख और वृधि का पुत्र लिखा है और इनकी संख्या ६० यह चरपरा, कडुआ, रूग्वा और रुचिकर तथा तीखा, गरम, की तिगुनी मानी गई है। पर पुराणों में इन्हें कश्यप और हलका, पित्तवर्द्धक, कफ और बात का नाशक, विष, कृमि : विति का पत्र लिखा गया है जिसे उसके वैमात्रिक भाई