पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/१७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सरदल ४६६३ सरपिंजर सरदल'-सथा पुं॰ [देश०] दरवाजे का बाजू या साह । निर्वाह होना । गुजारा होना । निभना । ६ दे० 'मडना' । सरदल-क्रि. वि० [फा० सरदर] दे० 'सरदर'। ७. खत्म होना । बीत जाना । समाप्त होना। उ०-बीत जाम सरदा- सच्चा पुं० [फा० सर्दह,] एक प्रकार का बहुत बटिया खरबूजा वोलि तब प्रायो, मुनह करा तव पाइ मरची।-सूर०, १०१५६। जो काबुल में आता है। सरनाई- सन स्त्री० [सं० शरण] शरण । प्राय य । रक्षा । उ० - सरदार- सज्ञा पुं० [फा०] १ किसी मडली का नायक । अगुवा । श्रेष्ठ (क) जो सभीत आवा सरनाई । - मानस, ६।४४ । (ख) व्यक्ति। २ पिसी प्रदेश का शासक । ३ अमीर । रईस । सूर कुटिल राखौ मरनाई इहि व्याकुल कलिकाल ।- ४ वेश्यानो की परिभापा मे वह व्यक्ति जिसका किसी वेश्या से मबध हो। ५ वह जो सिख संप्रदाय को मानता हो। सूर०, ११२०११ सिखो की उपाधि। सरनागत-वि० [स० शरणागत] दे॰ 'शरणागत' । उ०--सरनागत कह जे तजहिं निज अनहित अनुमानि :--मानम, ६६४३ । सरदार तत्र-सज्ञा पु० [फा० सरदार+स० तन्त्र] एक प्रकार की यौ०-सरनागतवच्छल = दे० 'शरणागतवत्सल'। उ०-मरनागत सरकार जिसमे राजसत्ता या शासनसूत्र सरदारो, वडे वडे वच्छल भगवाना। -मानस, ६४३ । ताल्लुकदागे या ऐवंशाली नागरिको के हाथ मे रहता है । कुलीन तन । अभिजात तन । कुल तन्न । दे० 'ऐरिस्टोसी' । सरनाम -वि० [फा०] जिसका नाम हो । प्रसिद्ध । मशहूर । विख्यात । सरदारनी-सझा स्त्री॰ [हिं० सरदार प्रतिष्ठित सिख महिला । सर- उ०-तुलसी सरनाम गुलाम हे राम को जाको रुच सो कहै दार की पत्नी। कछु पोऊ ।-तुलसी ग्र०, पृ० २२३ । सरदारी-सा स्त्री० [फा०] सरदार का भाव । सरनामा-सज्ञा पुं० [फा० सरनामह, तुल स० शिरोनाम] १ किसी अध्यक्षता। लेख या विषय का निर्देश जो ऊपर लिखा रहता है। स्वामित्व। शीर्पक । २ पत्न का प्रारभ या सवोधन । ३. पन आदि पर सरदाला-मशा स्त्री॰ [देश॰] उत्तरी भारत की रेतीली भूमि मे होने- लिखा जानेवाला पता। वाली एक प्रकार की बारहमासी घास जो चारे के लिये अच्छी सरनी-पना श्री० [सं० सरणी] दे० 'सरणी' । उ.-ग्रज जुवती समझी जाती है। वादरी। सव देखि थकित भई सुदरता को सरनी।--सूर०, १०११२३ । सरद्वत्-सबा पुं० [स०] १ गौतम ऋपि । २ गौतम ऋपि के एक सरपच-सज्ञा पुं० [फा० सर+हि० पच पचो मे बडा व्यक्ति । पुत्र का नाम [को॰] । पचायत का सभापति । सरधन-वि० [सं० सधन] धनी । अमीर । निर्धन का विपरीत सरपजर--सज्ञा पु० [स० शरपञ्जर बाणो का घेरा। मरपिजर । वाचक। उ०-अवघट घाट वाट गिरिकदर । मायावल कीन्हेसि सर. सरघाँकी-सच्चा स्त्री॰ [देश॰] एक प्रकार का पौधा जो प्राय रेतीली पजर ।-मानस, ६७२। भूमि मे होता है । यह वर्षा और शरद् ऋतु मे फूलता है। सरपी-पधा पु० [सं० सर्प साँप । इसका व्यवहार औषधि के रूप मे होता है। सरपट'--क्रि० वि० [स० सपर्ण] तोगति से। सरपट चाल से। सरधाg1-सचा बी० [सं० श्रद्धा] दे० 'श्रद्धा' । क्रि० प्र.-छोडना ।-डालना।--दौडना ।-फेंकना । सरचौकी-सशा स्त्री॰ [देश॰] दे॰ 'सरांकी' । सरन --सद्या स्त्री० [स० शरण] दे० 'शरण' । उ०-अब प्रायो सरपट'-सझा स्त्री० घोडे की बहुत तेज दौड जिसमे वह दोनो प्रगले हो सरन तिहारी ज्यो जानौ त्यो तारी।-सूर०, १।१७८ । पर साथ साथ आगे फेकता है। सरपट-वि० समथर | चौरस । सपाट । सरनगत-वि० [सं० शरणागत शरण मे गया हुअा । जो शरणागत हो।-उ० सूरदास गोपाल सरनगत भएँ न को गति पावत । सरपत--यहा पुं० [स० शरपन कुश की तरह की एक घास । -सूर०, १११८१॥ विशेष-इसमे टहनियां नहीं होती बहुत पतलो (प्राधे जो भर) सरनदीप-समा पु० [स० स्वर्ण द्वीप या सिंहल द्वीप] लका का एक और हाथ दो हाथ लबी पत्तियाँ ही मध्य भाग से निकलकर प्राचीन नाम जो अरखवालो में प्रसिद्ध था। उ०-दिया दीप चारो ओर घनी फैली रहती है। इसके बीच से पतली छड नहिं तम उजियारा । सरनदीप सरि होइन पारा। जायसी निकलती है जिसमे फूल लगते है। यह घास छप्पर ग्रादि छाने (शब्द०)। के काम मे पाती है। सरनविश्त-सक्षा नी० [फा०] १. भाग्यलिपि । २ हालचाल। सरपरस्त--सपा पुं० [फा०] १. रक्षा करनेवाला । २. श्रेष्ठ पुरुष । वृत्तात । खबर (को॰] । भिभावक । सरक्षक। सरना'-क्रि० प्र० [स० सरण (= चलना, सरकना)] १ शबी० [फा०] १ सरक्षा । २. अभिभावकना । सरकना । खिसकना । २ हिलना । डोलना । ३. काम सपा पुं० [स० शरपिजर) बाणा का ॥ पूरा पड़ना । जैसे,—इतने में काम नही सरेगा। ४. । उ०-अर्जुन तव सरपिजर : होना । किया जाना । निवटना । जैसे,-काम दियो ।-सूर०, १०४३.६ " n