पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/२४०

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सात्यहव्य ५०६० साथिया सगी। सात्यहत्य--सञ्ज्ञा पुं० [स०] वशिष्ठ के वश के एक प्राचीन ऋषि का नाम। सातव-मज्ञा पु. [1] Tधक । सात्राजित मज्ञा पु० [सं०] राजा शतानीक जो सत्राजित के वशजये। सानाजिती-सज्ञा स्त्री० [स०] सत्यभामा का एक नाम । सात्व-वि० [स० सात्त्व] मत्व गुण सबधी। सात्विक । सात्वत'-सञ्ज्ञा पु० [सं०] १ वलराम । २ श्रीकृष्ण । ३ विष्णु । ४ यदुवंशी। यादव। ५ मनुसहिता के अनुसार एक वर्ण सकर जाति । जातिच्युत वैश्य और त्यक्त क्षत्निय पत्नी से उत्पन्न सतान। ६ सात्वत के अनुयायी। वैष्णव (को॰) । ७ एक प्राचीन देश का नाम । सात्वत'-वि० १ सात्वत अर्थात् विष्ण से सबधित। वैष्णव । २ भक्त । ३ पाचरान से सबधित (को०] । सात्वती-मशा स्त्री॰ [स०] १ शिशुपाल की माता का नाम । २ दे० 'सात्वती वृत्ति' (को०) । ३ सुभद्रा का एक नाम । यौ०-सात्वतीपुत्र, मात्वतीसूनु = शिशुपाल । सात्वतीवृत्ति--रज्ञा स्त्री० [म०] साहित्य के अनुमार चार नाटकीय वृत्तियो मे से एक प्रकार की वृत्ति । विशेष-इसका व्यवहार वीर, रौद्र, अद्भुत और शात रसो मे होता है। यह वृत्ति उम समय मानी जाती है जब कि नायक द्वारा ऐसे सुदर और आनदवर्धक वाक्यो का प्रयोग होता है, जिनसे उसकी शूरता, दानशीलता, दाक्षिण्य आदि गुण प्रकट होते हैं। सात्विक'-वि० [म० सात्त्विक] १, सत्वगुण से सबध रखनेवाला । सतोगुणी। २ जिसमे सत्वगुण की प्रधानता हो। ३ सत्व गुण से उत्पन्न । ४ वास्तविक । यथार्थ । ५ सत्य । स्वाभाविक (को०)। ६ ईमानदार। सच्चा (को०)। ७ गुणयुक्त (को०)। ८ शक्तिशाली। प्रोजपूण (को०) । आतरिक भावना से प्रेरित (को०)। सात्विक---सज्ञा पु० १ मतोगुण से उत्पन्न होनेवाले निसर्गजात अगविकार। ये आठ प्रकार के होते हैं, स्तभ, स्वेद, रोमाच, स्वर भग, कप, वैवर्ण अश्रु और प्रलय । विशेष--केशव के अनुसार आठवां प्रलय नहीं प्रलाप होता है । २ साहित्य के अनुसार एक प्रकार की वृत्ति जिसका व्यवहार अद्भुत, वीर, शृगार और शात रसो मे होता है। सात्वती वृत्ति । ३ ब्रह्मा। ४ विष्ण। ५ चार प्रकार के अभिनयो मे से एक । मात्विक भावो को प्रदर्शित करके, हमने, रोने, स्तभ और रोमाच ग्रादि के द्वारा अभिनय करना। ६ ब्राह्मण (को०)। ७ शरद् ऋतु की रात्रि (को०)। ८ विना जल के दी जानेवाली आहुति या बलि (को॰) । सात्विकी'-मज्ञा स्त्री० [म० सात्त्विकी] दुर्गा का एक नाम । सात्विकी--विस्त्री० सत्व गुण सवधी। सत्व गुण से सवध रखने- वाली | सत्वगुण की। साथ'--सज्ञा पुं० [स० सह या सहित, पृ०हिं० मय्य] १ मिनकर या मग रहने का भाव । सगत । महचार । क्रि० प्र०--करता ।-रहना।—लगना।—होना । मुहा०-साथ छूटना = सग छूटना। अलग होना। जुदा होना। साथ देना = किमी काम मे सग रहना । महानुभूति करना या महायता देना। जैसे,—इम काम मे हम तुम्हाग साथ देगे। साथ निवहना = साथ साथ या मेल जोल के माथ समय वीतना। साथ लगना = किमी कार्य मे शरीक होना। रिसी का माथ पकडना । साथ लगाना = किमी कार्य में सम्मिनित करना । माथ करना। साथ लेकर दूबना = अपना नुक्सान करने के माथ माय दूसरे का भी नुक्मान करना । साय लेना- अपने सग रउना या ले चलना। जैसे,--जब तुम चलन लगना तो हमे भी माय ले लेना । माय सोना = समागम करना। सभाग करना। माय नोकर मुंह छिपाना = बहुत अधिक घनिष्टता होने पर भी मकोच या दुराव करना। साथ का या माय को = तरकारी, भाजी अादि जो रोटी के माय खाई जाती है। साथ का खेला= बाल्यावस्या का मिन्न । बचपन का साथी। साथ होना = मेनजोल होना। मित्रता होना। २ वह जो सग रहता हो। वरावर पाम रहनेवाला। साची । ३ मेल मिलाप । घनिष्टता । जैने,-याजकल उन दोनो का बहुत माथ है । ४ कबूतरो का झुट या टुकडी। (लखनऊ)। साथ-अव्य० १ एक सवधसूचक अव्यय जिसने प्राय महबार का बोध होता है । महित । मे। जैसे,—(क) तुम भी साथ चले जानो । (ख) वह बडे पाराम के साथ काम करता है। महा०--साथ मे घसीटना किमी की इच्छा के विरुद्ध उमको किसी कार्य मे ममिलिन करना । साथ ही = सिवा । अतिरिक्त। जैसे,—साथ ही यह भी एक बात है कि आप वहाँ नहीं जा सरेंगे। साथ ही माथ = एक साय । एक् सिलसिले में । जैसे,- साथ ही साथ दोहगते भी चलो । एक साथ = एक मिलसिले मे जैने,--(क) एक साथ दोनो काम हो जायंगे। (ख) जव एक साथ इतने आदमी पहुंचेगे तो वे घवग जायेंगे । २ विरुद्ध । से । जैसे,-मबके माथ लडना ठीक नहीं। ३ प्रति । से । जैसे,—(क) उनके माथ हँसी मजाक मत किया करो।(ख) वडो के साथ शिष्टतापूर्वक व्यवहार किया करो। ४ द्वारा। उ०-नखन साय तव उदर बिदारयो ।-मर (शब्द०)। साथरा-सा पु० [८० सस्तरण] [स्त्री० साथरो] १ विछोता । विस्तर । २ चटाई। ३ कुश की बनी चटाई । उ०- रघुपति चद्र विचार करयो। नातो मानि सगर सागर सो कुश साथरे परयो।—सूर (शब्द०)। साथरी-शा खा० [स० सरतरण] दे० 'साथरा' । साथिया-वज्ञा पु० [स० स्वस्तिक] दे॰ 'सथिया' । उ०-(क) साथिये बनाइ कै देहि द्वारे सात सीक बनाय । -सूर (शब्द०)। (ख) मगल सदन चारि साथिये इन तरे जुत जदु फल चारि तकि सुख करौं हो।-घनानद, पृ० ३५२ ।