पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/४४२

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सृग्विनी सूहा' ७०६२ विशेप--किमी के मन मे यह विभाम और मालश्री के मेल से सृका-तज्ञा पु० [स० वज्, नम्] माला । ७०--दरसन हू नास और किमी किसी के मत से विभास और वागीश्वरी के मेल से जम सैनिक जिमि नह वालक सेनी। सूर परस्पर करत वना है । इममे गाधार, धैवत और निपाद तीनो कोमल लगते कुलाहल, गर सृक पहरावनी ।—सूर (शब्द॰) । हैं। इसके गाने का समय : दड से १० दड तक है। हनुमत् सृकाल-सञ्ज्ञा पु० [स०] दे० 'शृगाल'। उ० -तुलमिदास हरिनाम के मत मे यह दीपक राग का और अन्य मतो से हिंडोल या सुधा तजि सठ हठि पियत विपम विप मागी। सूकर स्वान सृकाल भैरव गग का पुत्र है। कुछ लोगो ने इसे रागिनी कहा है और सरिस जन जनमत जगत जननि दुख लागी।-तुलसी (गब्द०)। भैरव की पुत्रवधू बताया है। सृक्क, सृक्कन् - सञ्चा पु० [स०] दे० 'सृक्व' । सूहा'-वि० [वि० मी० सूही] विशेष प्रकार के लाल रंग का। लाल । उ०—(क) सूहा चोला पहिर प्रमोला पिया घट 'पिया को सृक्कणी, सृक्किणी--सज्ञा स्त्री० [स०] दे० 'सृक्व' । रिझायो रे । --कवीर श० भा० १, पृ०७१ । (ख) सजि सूहे सृकथा-सञ्ज्ञा स्त्री० [स० / जोक । दुक्ल सबै सुख साधा ।-पद्माकर (शब्द॰) । सृक्की-सञ्ज्ञा स्त्री० । सं०] जोक । सूहाकान्हडा-सञ्ज्ञा पु० [हिं० सूहा + कान्हडा] सपूर्ण जाति का एक सृक्व सृक्वन--सज्ञा पु० [स०] अोठो का छोर। मुंह का कोना । सकर राग जिममे सब स्वर शुद्ध लगते हैं । सृक्वणी सृक्विएी-सञ्ज्ञा स्त्री० [स०] दे० 'सूक्व' । सूहाटोडी--सज्ञा स्त्री० [हिं० सूहा + टोडी] सपूर्ण जाति की एक सकर सृक्की सृक्वी-सज्ञा पुं॰ [स० सृक्किन्, स क्विन्] an 'मकक' [को०] । रागिनी जिसमे मव कोमल स्वर लगते हैं । सृग'--सज्ञा पु० [म०] १ वरछा। भाला। भिदिपाल । २ तीर । सूहाबिलावल -सज्ञा पु० [हिं० सूहा + विलावल] सपूर्ण जाति का वाण। शर। एक सकर राग। सृग- --मज्ञा पु० [स० स्रक्, स्रज] माला । गजरा। हार । उ०- सूहाश्यामसभा पु० [स० मूहा + श्याम] सपूर्ण जाति का एक सकर खेलत टूटि गए मुकता सृग मुकुतवृ द छहराने। मनु अपार राग जिसमे सव शुद्ध स्वर लगते है। सुख लेन तारकन द्वार द्वार दरमाने ।-रघुराज (शब्द॰) । सूही-वि० स्त्री० [हिं० सूहा] दे० 'मूहा' । उ०-गावत चढी हैं हिंडोरे सृगाल--सज्ञा पु० [स०] [स्त्री० सृगाली] १ सियार। शृगाल । २ सूही सारी सोहै।-नद० ग्र०, पृ० ३७५ । एक प्रकार का वृक्ष । ३ एक दैत्य का नाम । ४ हरिवश मैं सृका-सज्ञा स्त्री॰ [स० सृका] १ दीप्त या प्रकाशयुक्त रत्नो की माला । करवीरपुर के राजा वासुदेव का नाम। ५ प्रतारक । धूर्त । २ पथ । राह । रास्ता [को०] । धोखेबाज । ६ कायर । भोरु । डरपोक । ७ दु शील मनुप्य । वदमिजाज । प्रादमी। सृखला-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [स० शृङ्खला] २० 'शृखला' । उ०---तुलसिदास प्रभु मोह सृखला छुटहि तुम्हारे छोरे।—तुलसी (शब्द॰) । सृगालकटक-सञ्ज्ञा पुं० [स० सृगालकण्टक] सत्यानासी का पौधा । सृग-सञ्ज्ञा पु० [स० शृङ्ग] दे० 'शृग' । कटेरी। स्वर्णक्षीरी। भडभाड । सृगवेर-सञ्ज्ञा पु० [स० शृङ्गवेर] दे० 'शृगवेर' [को॰] । सृगालकोलि-मज्ञा पु० [सं०] वेर का पेड या फल । सृगवेरपुर-सज्ञा पु० [सं० शृङगवेरपुर] दे० 'शृगवेरपुर' । उ०- सृगालघटी-भज्ञा स्त्री० [स० सृगालघण्टी] तालमखाना । कोकिलाक्ष । सीता सचिव सहित दोउ भाई । सृगवेरपुर पहुंचे आई। सृगालजवु-सञ्ज्ञा पु० [स० सृगालजम्बु] १ तरवूज । गोडु व । २ तुलसी (शब्द०)। झडवेरी । छोटा वेर। सृगार@--सशा पुं० [स० शृङगार] दे॰ 'शृगार' । उ०--महा सुघट्ट सृगालरूप-सञ्ज्ञा पुं॰ [स०] शिव । महादेव । पट्टिय । सृ गार भूमि फट्टिय ।--ह० रासो, पृ० १३३ । सृगालवदन-सञ्ज्ञा पुं० [स०] हरिवश मे वणित एक असुर का नाम । सुगी--सञ्चा पु० [स० शृटिगन्] दे० 'शृगी' । सृगालवास्तुक-सज्ञा पु० [स०] वथुआ साग का एक भेद । सृजय-सज्ञा पु० [स० तृञ्जय] १ ऋग्वेद मे देवरात के एक पुत्र का सृगालविन्ना --सज्ञा स्त्री० [स०] पिठवन । पृश्निपर्णी । नाम । २ मनु के एक पुत्र का नाम । ३ पुराणोक्त एक वश जिसमे धृष्टद्युम्न हुए थे और जिस वश के लोग महाभारत युद्ध सृगालवृता-मज्ञा स्त्री॰ [स० सृगालवृन्ता] दे० 'सृगालविन्ना' । मे पाडवो की ओर से लडे थे। ४ ययातिवश के कालनर के सृगालिका--सञ्ज्ञा स्त्री० [सं०] १ सियारिन । गीदडी। २ लोमडी। एक पुत्र का नाम । ३ विदारीकद । भूमिकुप्माड । ४ पलायन । भगदड । ५ सृजयी-सज्ञा स्त्री० [स० सृञ्जयो] हरिवश मे वर्णित यजमान की दो दगा फसाद । हंगामा । पत्नियो का नाम । सृगालिनी--सज्ञा स्त्री॰ [स०] मियारिन । गीदडी। सृजरी-सज्ञा स्त्री० [स० सृञ्जरी] दे० 'सृ जयो' । सृगाली--सज्ञा स्त्री० [म०] १ सियारिन। गीदडी । २ लोमडी । ३ सृकडु, सृकडू-संज्ञा स्पी० [स० सृकण्डु, सृकण्डू] खाज। खुजली । कडु । पलायन । भगदड। ४ उपद्रव । हगामा। ५ तालमखाना। सृक-सज्ञा पु० [म०] १ शूल । भाला । २ वाण । तीर। ३ वायु । कोकिलाक्ष । ६ विदारीकद । हवा । ४ करव । कमल का फूल । ५ वज्र [को०] । सृग्विनी--सञ्ज्ञा स्त्री॰ [स०] दे० 'त्रग्विणी' ।