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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/१९

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२७२८ पंच' पंगरण विशेष-जव किसी वणिक छंद मे लघु के स्थान मे गुरु या गुरु की। निवछावर प्रान करे तुलसी वलि जाउँ लला इन बोलन की।—तुलसी (शब्द॰) । के स्थान में लघु या जाता है तब यह दोष माना जाता है। जैसे,—'फूटि गए धृति ज्ञान के केशव प्रांखि अनेक विवेक की क्रि० प्र०—जोड़ना। फूटी । इसमे ज्ञान के साथ 'के' और विवेक के साथ 'की' २. भोज के समय भोजन करनेवालो की पक्ति ।। गुरु हैं । यहाँ नियमानुसार लघु होना चाहिए था। क्रि० प्र०-बैठना।-उठना । —लगना। पगुनाह-उज्ञा पुं॰ [ म० पनाह ] १ मगर । २. मकर राशि । ३ भोज। पगुड़ा-वि० [सं० पा ला ] पति के पीछे पीछे चलनेवाली । उ०- क्रि० प्र०—करना ।—लगाना ।—होना ।—देना । किसकी ममा चचा पुनि किसका पगुडा जोई। यह ससार ४ समाज। सभा । ५ जुलाहों के करघे का एक औजार जो वजार मंड्या है, जानेगा जन कोई ।-कवीर ग्र०, दो सरकडो से बनाया जाता है। पृ० १२० । विशेष—इसे कैची की तरह स्थान स्थान पर गाड देते हैं। पगुता-सज्ञा पु० [ स० पग ता] १. लंगडापन । २. स्तव्यता (ो०] । इनके ऊपरी छेदो पर ताने के किनारे के सूत इसलिये फैसा पगुर@-वि० [स० पहल ] ८० 'पगुल' । उ०—(क) जैसे नर दिए जाते हैं जिसमे ताना फैला रहे । पगुरो विन सु झगुरी न चल्ल हि । अाधारित झगरी हत्वह पगरण-सञ्ज्ञा पुं० [स० प्रावरण, प्रा० पगुरण] वल्ल । कपडा । वत्त न चल्लहि। पृ० रा०, ६१। २०२८ । (ख) सब उ०-विहद कोर गोटे बणे, पातर रे पोसाक । परणी फाटे पगुर किहि विधि कहत यह जयचद सु इद ।-पृ० ६१॥ पगरण, बेली फाटे वाक ।-बाँकी० न०, भा॰ २, पृ०६। १०२७। पगा-वि० [म० पङ्ग] [ चि? स्त्री० पगी] १. लंगडा । २. स्तव्ध । पगुल'-सा पुं० [ पर पग ल ] १. मडी का पेड । २. सफेद घोडा वेकाम । उ०-नागरी सकल सकेत आकारिनी गनत गुनगनन जो सफेद कांच के रग का हो। ३. सफेद रंग का घोडा। मति होत पगो।-नागरीदास (शब्द०)। पंगुल-वि० [१० पह, ] पगु । लँगडा। उ०--पगुला मेरु सुमेर पंगानी-संज्ञा सी० [हिं०] कोई वस्तु जो पग सवधी हो। उडावे, त्रिभुवन माही डोले। -कवीर श॰, भा॰ २, पृ० २६ । उ०-जिन मत्री कैमास वध वध्यौ पगानी।-पृ० रा०, पंगुल्यहारिणी-सञ्ज्ञा मो० [ न० पङ्ग ल्यहारिणी ] चगोनी । ५७।६६ । २. पग की पुत्री । सयोगिता। पगायता-सञ्चा पुं० [हि० पग ] पायताना । गोडवारी। पगो-शा भी० [हिं० पाँक ] मिट्टी जो नदी अपने किनारे वरसात वीत जाने पर डालती है। पगाप्त-सज्ञा पुं० [?] एक प्रकार की मछली । पगो'–सञ्चा स्त्री० [स० पङ्ग, हिं० पाँक ] धान के खेत मे लगनेवाला पधरना-क्रि० प्र० [हिं० पिघलना ] द्रवित होना। पिघलना। एक कीड़ा। भावाभिभूत होना। उ०—तपा जी तुम्हारे बचन सुण कर मोम की न्याई पघर गए हां जी।-प्राण, पृ० २६२ । पगो+२- संज्ञा स्त्री॰ [ देश० ] कीति । यश । उ०-पगी गग प्रवाह, निरमल तन कीधो नही। चित्त क्यू राखें चाह तिके सरग पच'-वि० [सं० पञ्चन् ] पाँच । जो सस्या मे चार से एक पावण तणी।-बांकी० ग्र०, भा० ३, पृ०४६ । अधिक हो। पगु'-वि॰ [ स० पङ्ग, ] जो पैर से चल न सकता हो। लंगडा । यौ०-पचपात्र । पचनख । पचानन । पचामृत । पचशर । उ०—(क) मूक होइ वाचाल पगु चढे गिरिवर गहन । पचेंद्रिय । पचासनान=सत्य, शील, गुरु के वचन का पालन, जासु कृपा सो दयाल, द्रवी सकल कलिमल दहन ।--मानस, शिक्षा देना, और दया करना ये पांच प्रकार के स्नान ।- १।१ । (ख) मति भारति पगु भई जो निहारि विचारि गोरख०, पृ०७६ । फिरी उपमा न पवै ।—तुलसी (शब्द०)। पच'-सञ्ज्ञा पुं० १ पांच या अधिक मनुष्यो का समुदाय । समाज । पगु-संज्ञा पुं० १ शनैश्चर । २ एक रोग । यह मनुष्य के पैरो मे जनसाधारण । सर्वसाधारण । जनता । लोक । जैसे,—पच और जांघो मे होता है। कहैं शिव सती विवाही। पुनि अवहेरि मरायनि वाही ।- विशेप-यह वात रोग का भेद है। वैद्यक का - मत है कि कमर तुलसी (शब्द॰) । (ख ) साई तेली तिलन सो कियो नेह निर्वाह । छाँटि पटकि ऊजर करी दई वडाई ताहि । दई वडाई में रहनेवाली वायु जांघो की नसों को पकडकर सिकोड देती है जिससे रोगी के पैर सिकुड़ जाते हैं और वह चल फिर ताहि पच मह सिगरे जानी । दै कोल्हू मे पेरि करी एकत्तर घानी ।-गिरिधर (शब्द०)। नहीं सकता। ३ एक प्रकार का साधु जो भिक्षा वा मलमूत्रोत्सर्ग के अतिरिक्त मुहा०-पच की भीख = दस आदमियो का अनुग्रह । सर्वसाधा- अपने स्थान से उठकर किसी भोर काम के लिये दिन भर मे रण की कृपा । सबका आशीर्वाद । उ०-ौर ग्वाल सव गृह एक योजन से बाहर नही जाता। पाए गोपालहि बेर भई। राज कर वे न तुम्हारी नंदहि कहति सुनाई। पच की भीख सूर वलि मोहन पगुगति–सञ्चा पी० [ स० पङ्ग गति ] वणिक छदो का एक दोप । कहति जशोदा माई । —सूर (शब्द०)। पच की दुहाई = !