पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/२५१

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पायवख्त २६६० पायुभेद उ०-हरि घोडा ब्रह्मा कही, विस्तू पीठ पलान । चद सूर जन्म के समय जिसके पैर पहले बाहर हो। ४ वास की सीढ़ी। ह्व पायडा, चढ़सी सत सुजान।-सतवाणी०, पृ० ३८ । पायस'-सज्ञा पु० [सं०] १. दूध और शर्करा के साथ पकाया हुआ पायतख्त-सञ्ज्ञा पुं० [फा० पाय तख्त, पाएतख्त ] राजनगर । पासनकेंद्र । राजधानी। चावल । खीर । २ क्षीर । दुग्ध । दूध (को०)। ३ सरल- निर्यास । सलई का गोंद जो विरोजे की तरह का पायतावा-मज्ञा पुं० [फा०] खोली की तरह का पैर का एक होता है। पहनावा जिससे उगलियों से लेकर पूरी या प्राधी टाँगें ढकी रहती हैं । मोजा । जुर्राव । पायस-वि० दूध या जल का । दुग्ध या जल से सवद्ध [को॰] । पायसाबु-सञ्ज्ञा पुं० [सं० पार्श्व, हिं० पास] पडोस । आसपास पायदल-सज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'पैदल'। उ०-कहे कासी पडत लाल झंडे बहुत । पायदल जावे तहत क्या खवर लाव ।- का स्थान । उ०-वीरानी जेठानी सासु ननद सहेली दासी दक्खिनी, पृ० ४६ । पायसे की बासी तिय तिनके हो गोल में ।-रघुनाथ (शब्द०)। पायदान-सशा पुं० [फा० पाएदान ] दे० 'पावदान' । पायसिक-वि० [सं०] [ वि० स्त्री० पायसिकी ] जिसे उवाला या पायदार-वि० [फा०] बहुत दिनो तक टिकनेवाला। बहुत दिनो तक चलनेवाला । जल्दी न टूटने फूटने या नष्ट होनेवाला । प्रौटाया हुमा दूध प्रिय हो (को०] । टिकाक । दृढ़। मजबूत । पाया-सज्ञा पुं० [सं० पाद, हिं० पाव फा० पायह् ] १ पलग, कुरसी, पायदारी-सञ्ज्ञा स्त्री० [फा०] मजबूती। दृढ़ता। चौकी, तख्त भादि में खडे हंडे या खभे के प्राकार का वह भाग जिसके सहारे उसका ढांचा या तल ऊपर ठहरा रहता पायन-संज्ञा पुं॰ [सं०] पिलाना [को०] । है । गोडा। पावा । जैसे, तख्त का पाया, पलंग के चारों पाये। पायना-सचा श्री• [सं०] १ तेज करना । सान धरना । २ पिलाने २ खंभा । स्तम । ३ पद । दरजा । रुतवा । मोहदा । ४. की क्रिया। ३ भाद्र करना । सीचना । गीला करना [को०] । घोडों के पैर मे होनेवाली एक वीमारी । ५. सीढ़ी । जीना । पायपोश-सचा पुं० [फा०] दे० 'पापोश'। पायाब-वि० [फा०] हलकर पार करने लायक । उथला । जो पायवोसी-सच्चा स्त्री० [फा० पायोसी ] चरणच बन । पैर चूमना । गहरा न हो । गाघ (को०। पायमाल-वि० [फा० पामाल, पाएमाल ] १ पैरों से रौंदा हुमा। पायाबो-सज्ञा स्त्री॰ [फा०] गाधता । छिछलापन । उथलापन (को॰] । २ विनष्ट । वरवाद । ध्वस्त । उ०—तुलसी गरव तजि, पायान-सञ्ज्ञा पुं० [सं० प्रयाण ] १. गमन । प्रयाण । उ- मिलिवे को साज सजि, देहि सिय नतु पिय पायमाल सुभ्रित सकल लिय वोलि पुच्छि परिहार तिनहि मत । चाहू- जाहिगो।—तुलसी (शब्द०)। आन पायान कहत प्रास्वेट जुद्ध घत ।-पृ० रा०,७१६५। पायमानी-सक्षा स्त्री॰ [फा० पामाली ] १ दुर्गति । अधोगति । २. २ भाक्रमण । चढ़ाई। हमला। धाना। उ०—पायान राय जय- खरावी । बरवादी। नाश । चद को विगरि पिथ्थ कुन प्रगमै ।-पृ० रा०, ६१। १०६० । पायर-सज्ञा पुं० [हिं० पायल ] मूपुर । पायजेव। उ०- पायिक-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] [ वास्तव मे पादातिक का प्रा. रूप] १ नटनागर पायर पापन मैं, वृषभानु सुता यो घह्यो करिए। पादातिक । पैदल सिपाही । २. दूत । चर। अहो माखन चोर ! यही विधि सो, मम आँखिन वीच रह्यो करिए। -नट०, पृ० ७५ । पायित-सञ्चा पुं० [सं०] उदकदान । जल देना । जलप्रदान [को॰] । पायरा'-सशा पुं० [हिं० पायदा, पाय + रा ( = रखना) ] घोड़े की पायी-वि० [सं० पायिन् ] पीनेवाला । जीन या चारजामे के दोनों ओर लटकता हुआ पट्टी या तसमें पायु-शा पु० [स०] १ मलद्वार । गुदा। उ०-श्रोत्र त्वक चक्षु मे लगा हुमा लोहे का आधार जिसपर सवार के पैर टिके घ्राण रसना रस को ज्ञान वाक्य पाणिपाद पायु उपस्थ हि रहते हैं । रकाब। बघ जू । -सुदर ग्र०, भा॰ २, पृ० ५८८ । पायरा-सशा पुं० [देश॰] एक प्रकार का कबूतर । विशेष-पायु कर्मेंद्रियों में माना गया है। पायरो-सशा सी० [हिं० पाँवरी] दे० 'पावडी'। उ०—खियां २ भरद्वाज ऋषि के एक पुत्र का नाम । ३. रक्षक । वह जो भरि पावती मेरी प्रों सुमिरे उनकी पग पायरियां ।- रक्षा करे । गोप्ता । पालक [को०] । प्रेमघन॰, भा॰ २, पृ० १८८ । पायुभेद-सशा पुं० [सं०] चद्रग्रहण के मोक्ष का एक प्रकार जिसमें पायल-सज्ञा स्त्री० [हिं० पाय+ ल (प्रत्य॰)] १ पैर में पहनने मोक्ष या तो नैऋत कोण या वायु कोण से होता है । का स्त्रियो का एक गहना जिसमें धुंघरू लगे होते हैं । मूपुर । विशेष-यदि नैऋत कोण से मोक्ष हो तो उसे दक्षिण पायुभेद पाजेब । उ०—बजनी पंजनी पायलो मनभजनी पुर वाम । भौर यदि वायु कोण से हो तो वाम पायुभेद कहते हैं । इन रजनी नींद न परति है सजनी बिन घनस्याम ।-स० दोनो प्रकार के मोक्षों से सामान्य गुह्य पोडा और सुवृष्टि सप्तक, पृ० २३७ । २ तेज चलनेवाली हथिनी । ३ वह बच्चा होती है।