पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/२७४

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दूर होते हैं। पाशुपतास्त्रे पाषाणभेदी अतीसार, मट्टे और सेंधा नमक के साथ ग्रहणी इत्यादि रोग वेदविरुद्ध मत और भाचरण ग्रहण करनेवाला। झूठा मत माननेवाला। पाशुपतास्त्र-सज्ञा पुं० [स०] शिव का शूलास्त्र जो बडा प्रचष्ठ था । विशेष-मनुस्मृति में लिखा है कि पापडो, विकर्मस्य ( निपिद्ध अर्जुन ने बहुत तप करके इसे प्राप्त किया था। कर्म से जीविका करनेवाला ) , बैढालवतिक, तुवाद द्वारा पाशुपाल्य-सञ्ज्ञा पुं॰ [सं०] पशुप्रो को पालना । पशु पालने का वेदादि का खडन करनेवाले, वकवती यदि अतिथि होकर व्यवसाय [को॰] । पावें तो वाणी से भी उनका सत्कार न करे। अवैदिक लिंगी ( वेदविरुद्ध साप्रदायिक चिह्न धारण करनेवाले) पाशुवधक-सञ्ज्ञा पुं० [सं० पाशुवन्धक ] वह स्थान जहाँ यज्ञ का बलिपशु बांधा जाता है। प्रादि को पापडी कहने में तो स्मृति पुराण प्रादि एकमत हैं, पर पद्मपुराण भादि घोर साप्रदायिक पुराणो मे कहीं पाशुबधका-सज्ञा स्त्री० [स० पाशुवन्धका ] बलि का स्थान । बलि करने की वेदी को०)। शैव प्रौर कही वैष्णव भी पार्पही कहे गए है। जैसे पद्मपुराण मे लिखा है कि 'जो कपाल भस्म और अस्थि पाश्चात्य-वि० [सं] १ पीछे का। पिछला । २ पीछे होने- धारण करें, जो शख, चक्र, ऊर्ध्वपु ड्रादि न धारण करें, जो वाला । ३. पश्चिम दिशा का । पश्चिम में रहनेवाला । नारायण को शिव और ब्रह्मा के ही बराबर समझे ..वे पश्चिम सवधी। सब पापडी हैं'। दे० 'पाषड'। पाश्चात्य-सशा पुं० पिछला भाग । बाद का अश [को०] । २ वेश बनाकर लोगों को धोखा देने और ठगनेवाला । धर्म पाश्चिमोत्तर-वि० [सं० पश्चिमोत्तर] पश्चिम और उत्तर के श्रादि का झूठा प्राडबर खडा करनेवाला । ढोगी। धूर्त । कोण का। वायुकोण का।-प्रेमघन॰, भा॰ २, पृ० ४२ । पापक-सा पु० [सं०] पैर मे पहनने का एक गहना । पाश्या--सहा श्री० [स०] जाल । पाशा [को०) । पाषरपुर-सज्ञा स्त्री० [सं० प्रक्षर, प्रा० प्रक्खर] दे० 'पाखर' । उ० टाटर पाषर सजति कियो राव। धार नगरी राजा ।। पाष:'--Hशा पु० [ स० पाखण्ड या पापण्ड] १ वेद का मार्ग छोडकर अन्य मत ग्रहण करनेवाला। वेदविरुद्ध आचरण जाई।-बी० रासो०, पृ०१३ । करनेवाला । झूठा मत माननेवाला । मिथ्याधर्मी। पापाण-सञ्ज्ञा पु० [सं०] १. पत्थर । प्रस्तर । शिला । २. और नीलम का एक दोष ।-रत्नपरीक्षा ( पाब्द०)। ३ विशेष--बौद्धो और जैनो के लिये प्राय इस शब्द का व्यवहार गघक। हुआ है। कौलिक आदि भी इस नाम से पुकारे गए हैं। पुराणो में लिखा गया है कि पाषड लोग अनेक प्रकार के पाषाणकाल-सञ्ज्ञा पु० [ म० पापाण + काल ] ऐतिहासिक वेश बनाकर इधर उधर घूमा करते हैं। पद्मपुराण में लिखा मे वह काल या समय जब लोगो ने पत्थर की वस्तुएँ गया है कि 'पापडो का साथ छोडना चाहिए और भले लोगो सीखा। का साथ सदा करना चाहिए' । मनु ने भी लिखा है कि पाषाणगर्दभ-मशा पुं० [ म० ] हनुपघिजात नामक एक क्षुद्र रोग 'कितव, जुपारी, नटवृत्तिजीवी, क्रूरचेप्ट और पापड इनको दाढ सूजने का रोग। राज्य से निकाल देना चाहिए । ये राज्य में रहकर भलेमानुसों पाषाणगैरिक-तज्ञा पुं० [सं०] गेरू । गिरिमाटी । को कष्ट दिया करते हैं।' पाषाणचतुर्दशी-सज्ञा स्त्री० [सं०] अग्रहायण शुक्ला चतुर्दशी २ झूठा पाडवर खडा करनेवाला। लोगों को ठगने और धोखा अगहन सुदी चौदस ।-तिथितत्व (शब्द०)। देने के लिये साघुप्रो का सा रूप रग बनानेवाला । धर्म- विशेष-इस तिथि को स्त्रियाँ गौरी का पूजन करके रात ध्वजी। ढोगी आदमी। कपटवेशधारी। ३ सप्रदाय । पापाण (पत्थर के ढोको ) के आकार की बहियाँ वन मत । पथ। विशेष--प्रशोक के शिलालेखो मे इस शब्द का व्यवहार इमी पापाणदारक-सज्ञा पुं० [सं०] प्रस्तर काटने का औजार। . अर्थ में प्रतीत होता है। यह प्रथं प्राचीन जान पहता है, पीछे काटने की छेनी [को०] । इस शब्द को बुरे अर्थ में लेने लगे । 'पाषड' का विशेषण 'पापडी' बनता है। इससे इसका संप्रदायवाचक होना पाषाणभेद-सशा पुं० [ सं० ] एक पौधा जो अपनी पत्तियो सिद्ध होता है। नए नए संप्रदायों के खडे होने पर शुद्ध सुदरता के लिये बगीचे में लगाया जाता है। वैदिक लोग साप्रदायिको को तुच्छ दृष्टि से देखते थे । पथरचूर । पथरचट। विशेष-वैद्यक में पखानभेद भारी, चिकना तथा भूत्र पापंडर-वि० दे० 'पाखड' । पथरी, दाद, वात और प्रतीसार को दूर करनेवाला म पापटक-वि० [स० पापगढक ] पाषढी (को०] । जाता है। पापटिक-वि० [सं० पापयिटक ] पापडी [को०] । पाषाणभेदक, पापाणभेदन-सज्ञा पुं॰ [सं० ] दे० 'पापाणभेद' पाषंडी-वि० [सं० पापण्डिन् ] १, पापड । वेदाचार परित्यागी। पाषाणभेदो-सञ्ज्ञा पुं० [सं० पापायाभेदिन् ] पखानभद । य खाती हैं। र