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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/३००

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पिप्पल्यादिगण ३००६ पियार पिप्पल्यादिगण-सञ्ज्ञा पुं॰ [सं०] सुश्रुत के अनुसार प्रोषधियो का पियल्ला-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० पीना] दूधपीता वच्चा । दूध का वच्चा । एक वर्ग जिसके अतर्गत पिप्पली, चीता, अदरख, -मिर्च, उ०-तियन को तल्ला पिय, तियन पियल्ला त्यागे ढोसत इलायची, अजवायन, इद्रजौ, जीरा, सरसों, बकायन, होग, प्रबल्ला मल्ला घाए राजद्वार को।-रघुराज (शब्द॰) । भार्गी, अतिविषा, वच, विडग और कुटकी हैं । पियल्ला-मज्ञा पुं० [हिं० पीयर ] दे० 'पियरोला'। पिप्पिका-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [स०] दातो की मैल । पियवास-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० पिय+वाँस ] दे० 'पियावांसा'। पिपिक-सञ्ज्ञा पुं० [स०] [ सी० पिप्पीका ] एक पक्षी। पिया-सञ्ज्ञा पुं॰ [सं० प्रिय ] दे० "पिय'। पिप्लु-सञ्चा पु० [सं०] १. जतु मणि । २. तिल (को॰) । पियाज-सज्ञा पुं० [फा० प्याज ] दे० 'प्याज' । पिय-सा पुं० [ स० प्रिय, प्रा. पिन ] स्त्री का पति । स्वामी । पियाजी-वि० [हिं० पियाज + ई (प्रत्य॰) ] दे० 'प्याजी' । उ०-बहुरि बदन बिधु अचल ढांको। पिय तन चितै भौंह पियादा -सज्ञा पुं॰ [ फा० प्यादह, प्यादा ] दे० 'प्यादा'। करि बाँकी । खंजन मजु तिरीछे नैननि । निज पति कहेउ पियादा-वि० [स• पादतल, प्रा० पायदल] पैदल । जो पांव पांव तिन्हहिं सिय सैननि । —तुलसी (शब्द०)। चले। उ०-कबही सोवै भुई पियादे मंजिल गुजारी।- पियक्कड़-वि० [हिं० पीना +अक्कड़ (प्रत्य॰) ] अधिक पीने- पलह, भा०१, पृ० १४ । वाला। सीमा से ज्यादा पीनेवाला। पियान-सशा पुं० [सं० प्रयाण ] यात्रा । दे० 'प्रयाण'। उ०- पियक्कड़-सज्ञा पुं० शरावी। उ०-सुख भोगना लिखा होता, तो, ( स्वामी जी ) अगम अगोचर दूर पियाना मारग लप न जवान बेटे चल देते, और इस पियक्कड के हाथो मेरी यह कोई।-रामानद०, पृ०१४ । सांसत होती।-गवन, पृ० २३४ । पियाना-क्रि० स० [हिं० ] दे० 'पिलाना'। पियड़ा-सञ्ज्ञा पुं॰ [स० प्रिय, प्रा० पिश, अप० पियल ] प्रिय । पियानो-सञ्ज्ञा पुं० [40] एक प्रकार का बड़ा अंगरेजी वाजा जे पति । स्वामी। उ०-सती सत साचा गहै मरणौं न हराई। मेज के प्राकार का होता है। प्राण तजे जग देखता, पियही उर लाई।-दादू०, पृ० ५५५। विशेष-इसके भीतर स्वरों के लिये कई मोटे पतले तार हते पियना-वि० [हिं० पीना ] पेय । पीने का। उ०—पूत को हैं जिनका सवध ऊपर की पटरियो से होता है। पटरियो नित पियनी पय हुतो। पांच लगे प्रति उमग्यो सु तो। पर ठोकर लगने से स्वर निकलते हैं। नद० ग्र०, पृ० २४६ पियाबाँसा-सञ्चा पुं० [स० प्रिय, हिं० पिय+याँस ] कटसरेया पियरी-वि० [सं० पीत ] दे० 'पीयर', 'पीला' । कुरचक। पियरई --सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० पियर + ई (प्रत्य॰)] पीलापन । पियामन-सचा पुं० [ देश० ] राजजामुन नाम का वृक्ष । वि० दे० 'राजजामुन'। पियरवा -सञ्ज्ञा पुं० [सं० प्रिय, प्रा० पिष, अप० पियल, हिं० पियड+ वा (प्रत्य॰)] दे० 'पियारा' । पियार-सञ्श पुं० [सं० पियात ] मझोले प्राकार का एक पेड । पियराई।--नज्ञा स्त्री० [हिं० पियर, पीयर+आई (प्रत्य॰)] पीतता। विशेष-देखने मे यह पेड महुवे के पेड सा जान पडता है। पीलापन । जर्दी। भी इसके महुवे के पत्तो से मिलते जुलते होते हैं । वसत ३ पियरानाg+-कि०म० [हिं० पियर] पीला पहना। पीला होना। मे इसमें आम की सी मजरियाँ लगती हैं जिनके झडने फालसे के बराबर गोल गोल फल लगते हैं। इन फलो पियरो-वि० स्त्री० [हिं० ] दे० 'पीली'। मीठे गूदे की पतली तह होती है जिसके नीचे चिपटे 4 पियरी-सज्ञा स्त्री० [हिं० पियर ] १ पोली रंगो हुई धोती। २ होते हैं । इन वीजो की गिरी स्वाद मे वादाम और पिस्ते २. पीलापन । पीतता। उ०-डर ते मुख पियरो परि गई। समान मीठी होती है और मेवो में गिनी जाती हैं। यह ललित कपोलन पर छवि छई।-नद ग्र०, पृ० २५१ । ३ चिरौंजी के नाम से बिकती है। पियार के पेड एक प्रकार का पीला रग जो गाय को माम की पत्तियाँ भर के विशेषत दक्षिण के जगलो मे होते हैं। हिमालय खिलाकर उसके मूत्र से बनाया जाता है। एक नीचे भी थोडी उंचाई तक इसके पेड मिलते हैं पर 4 रोग । पीलिया। विशेषत विध्य पर्वत के जगलों में अधिकता से पाया जात पियरोला-सज्ञा पुं० [हिं० पीयर ] पीले रंग की एक छोटी चिडिया है। इसके घड़ मे चीरा लगाने से एक प्रकार का जो मैना से कुछ छोटी होती हैं और जिसकी बोली बहुत गोद निकलता है जो पानी में बहुत कुछ घुल जाता है। का मीठी होती है। कही यह गोद कपडे में माड़ी देने के काम में आता है। पियली-सज्ञा खी० [हिं० प्याली ] नारियल की खोपरी का वह छोपी इसका व्यवहार करते हैं । छाल और फल टुकडा जिसे बढ़ई प्रादि वरमे के ऊपरी सिरे के काँटे पर वारनिश का काम दे सकते हैं। इसकी लडकी उतनी मजबू इसलिये रख लेते हैं जिसमें छेद करने के लिये वरमा सहज नहीं होती पर लोग उससे खिलौने, मुठिया और दरवाजे में घूम सके। चौखट प्रादि भी बनाते हैं। पत्तियां चारे के काम में . रतन