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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/३०२

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पिलचना पिरान कुरखेत मयुरा पिराग हेत, जात हैं जगत सव काटन की पाप पिरोजन'-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० पिरोना या म० प्रयोजन ] वालक के क जू ।-सु दर ग्र० (जी०), भा० १, पृ० १६६ । छेदने की रीति । कनछेदन । पिरान-सज्ञा पुं० [सं० प्राण ] दे॰ 'प्राण'। उ०—नाहिंन चले पिरोजना-सज्ञा पुं० [ स० प्रयोजन ] दे० 'प्रयोजन'। पिरान, सो उपाय कीजै जु किन ।--व्रज० ग्र०, पृ०४। पिरोजा-सज्ञा पुं॰ [ फा० फीरोजा ] हरापन लिए एक प्रकार पिराना+-क्रि० प्र० [सं० पीडन ] १ पीडित होना । दर्द नीला पत्थर । दे० 'फीरोजा'। उ०-मानिक मरकत कुति करना । दुखना। उ०-चलत चलत पग पाय पिराने ।- पिरोजा। चीर कोर पचि रचे सरोजा। -मानस, श२८ सूर (शब्द०)। २ पीडा अनुभव करना। दुख समझना। पिरोड़ा-संज्ञा स्त्री॰ [ देश० ] पीली कडी मिट्टी की भूमि । सहानभूति करना । उ०—सेइ साधु सुनि समुझि के पर पीर पिरोना-क्रि० स० [सं० प्रोत प्रा० पोइत्र, पोश्र+ना (प्रत्य०) पिरातो।—तुलसी (शब्द॰) । १ छेद के सहारे सूत तागे आदि मे फंसाना । सूत तागे या पिरामिड-सञ्ज्ञा पुं० [अ०] दे० 'पीरामिड' । में पहनाना । गूयना । पोहना । जैसे, तागे मे मोती पिरो. पिराराg -सज्ञा पु० [ देश० ] दे० 'पिंडारा'। उ०-रूप रस रासि माला पिरोना । २ सूत तागे आदि को किसी छेद के पा पास पथिक । पिरारे ऐन नैन ये तिहारे ठग ठाकुर मदन पार निकालना। तागे श्रादि को छेद मे डालना । जैसे, के ।-रघुनाथ (शब्द०)। मे तागा पिरोना। संयो०-देना ।—लेना । पिरावनाg+-क्रि० स० [हिं० पेराना] पेरना । पेरवाना। उ०- पुष्प तिली सगम जव कीन्हा । कोल्हू माहि पिरावन लीन्हा । पिरोला-मज्ञा पुं० [हिं० पोला ] पियरोला पक्षी । -कबीर सा०, पृ० २८२ । पिरोहना-क्रि० स० [हिं० ] दे० 'पिरोना' । पिरावनो-वि० [हिं० पिराना ] पीडा देनेवाली। कष्टकर। पिथेमी, पिर्थवी-सज्ञा ग्मी" [सं० पृथिवी ] दे० 'पृथ्वी' । उ० उ.-कवीर पीर पिरावनी पजर पीड न जाइ। एक न पीड पाखंड की यहु पिथमी, परपंच का ससार ।-सतवार परीत को रही कलेजा छाइ । —कबीर ग्र०, पृ०८। पृ०१४। (ख) सात दीप नव खड पिर्थवी सात स पिरिचा-सञ्ज्ञा पुं॰ [देश॰] कटोरा । तश्तरी। समाना।-जग० श०, पृ०७६ । पिरिथिमो—सञ्चा सी० [हिं० ] दे० 'पृथ्वी' । उ०-सोने फूल पिल-पज्ञा स्त्री० [अ० ] (दवा की) गोली। बटी। जैसे, क्वि पिरिथिमी फूली।—जायसी ग्र० (गुप्त), पृ० ३५० । इन पिल । टानिक पिल । पिरिया-सञ्ज्ञा पुं॰ [देश॰] १, कुएँ से पानी निकालने का रहँट। पिलई'-सशा स्त्री॰ [ म० प्लीहा ] बरवट । तापतिल्ली। २ एक प्रकार का बाजरा । पिलई-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० पिल्ला ] कुत्ते की मादा सतति । पिरिया-तज्ञा स्त्री॰ [हिं० पीढ़ी ] पीढ़ी । पुश्त । उ० पिलक-सज्ञा पुं० [हिं० पीला ] १ पीले रंग की एक चिडिया पिरिया सहित सासरो पीहर, तारे खावद आप तिरे। मैना से कुछ छोटी होती है और जिसका कठ स्वर ६ रघु० रू०, पृ० १०२। मधुर होता है। यह ऊँचे पेडो पर घोसला बनाती है। पिरोल-मज्ञा पुं० [हिं०] 'प्रिय'। उ०-पठे पहर अरस मैं, तीन या चार अडे देती है। पियरोला । जर्दक । २ अव बैठा पिरी पसनि । दादू पसे तिनके जे दीदार लहनि ।- कबूतर। दादू०, पृ० १२६। पिलकना-क्रि० स० [ स०+पिल ( = प्रेरित करना ) ] पिरीत-सज्ञा स्त्री० [सं० प्रीति ] दे० 'प्रीति'। उ०—कीन्हेसि गिराना । २ लुढ़काना । ढकेलना । प्रथम जोति परकासू। कीन्हेसि तेहि पिरीत कैलासू । पिलकना २-क्रि० अ० [हिं० पिनकना] चिढना । खीझना । जायसी ग्र०, पृ० १। पिलका -सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० पिंडली ] दे० 'पिंडली'। पिरीतम-सञ्ज्ञा पुं० [सं० प्रियतम ] दे॰ 'प्रियतम'। उ०-भल पिलकिया-सा पुं० [ देश० ] पीलापन लिए खाकी रग को तुम्ह सुवा कीन्ह है फेरा । गाढ न जाइ पिरीतम केरा।- छोटी चिडिया जो जाडे के दिनो मे पजाव से प्रासाम जायसी ग्र० (गुप्त), पृ० २७२ । दिखाई देती है । यह चट्टानो के नीचे बच्चे देती है। पिरीता-वि० [सं० प्रीत (= प्रसन्न) ] प्रिय । प्यारा। उ० पिलखन-उा पुं० [ सं० प्लस ] पाकर का पेड। हा रघुनदन प्रान पिरीते। तुम बिनु जियत बहुत दिन पिलच-सज्ञा पुं॰ [हिं० पिलना] पिलने का भाव । पिल पडन बीते।-तुलसी (शब्द०)। मुहा०—पिलच पड़ना = एकाएक आक्रमण कर देना । पिरीति, पिरीतो-सज्ञा यो [हिं०] दे० 'प्रीति' । उ०—पीउ पडना। उ०-वन्तो-ना हुजूर, लौडी न जाने की। में सेवाति सो जैस पिरीती। टेकु पियास बाँधु जिय थीती। पीछे पड जायगी और पिलच पठेगी। बदी दरगुजरी।- जायसी ग्रं• (गुप्त), पृ० ३५४ । कु०, पृ. ३०। पिरोज-सज्ञा पुं० [फा० फीरोज ? ] कटोरा । तश्तरी । पिलचना-क्रि० प्र० [सं० पिल ( प्रेरणा )] १. दो ६