पुराण' पुरहौल ३०५२ पुरहौल-वि० [फा० ] भयकर । डरावना [को०] । पुरांतक-संज्ञा पु० [ मं० पुर+अन्तक ] शिव । पुरे।'-अव्य० [सं०] १ पुराने समय में । पहले । पूर्वकाल में । प्राचीन काल मे। उ०-रहे चक्रवर्ती नृपति विश्वामित्र महान । कियो राज पासन पुरा जाहिर भयो जहान । -रघुराज (शब्द०)। २ प्राचीन । प्रतीत । पुराना । जैसे, पुरावृत्त, पुराकल्प, पुराविद्, पुराकया। ३. वर्तमान काल तक । अब तक (को०)। ४ अल्प काल में । शीघ्र । थोडे समय में (को०)। पुरा--ता स्त्री० १ पूर्व दिशा । २ एक सुगध द्रव्य । विशेष-वैद्यक में यह कसैली, शीतल तथा कफ, श्वास, मूर्छा और विष को दूर करनेवाली मानी जाती है। ३ गगा नदी (गो०)। पुरा--मता गु[ मं० पुर ] गाँन । बस्ती। 'पुर'। पुराकथा-पप गी० [म.] पौराणिक आख्यान । प्राचीन कथा । इतिहाम (को०] । पुराफल्प--सज्ञा पुं० [सं०] १ पूर्व कल्प । पहले का कल्प । २ प्राचीन काल । ३ प्राचीन इतिहास । ४ एक प्रकार वा अर्थवाद जिसमे प्राचीन काल का इतिहास कहकर किसी विधि के करने की प्रोर प्रवृत्त किया जाय । जैसे, ब्राह्मणो ने इससे हवि पवमान सामस्तोम की स्तुति की थी। पुराकालीन-वि० [ स० पुरा+कालीन ] प्राचीन काल का। पुराकृत-वि० [१०] १ पूर्वकाल में किया हुमा । २ पूर्वजन्म में किया हुमा। पुराछतर-सञ्ज्ञा पुं० पूर्वजन्म मे किया हुअा पाप या पुण्यकर्म । पुराचीन-वि० [स० प्राचीन ] प्राचीन । पुराना। उ०-छिन्न करो पुराचीन संस्कृतियो के जड़ वधन । जाति वर्ण धेणि वर्ग से विमुक्त जन नूतन । -ग्राम्या, पृ०६६ । पुरा-सचा पुं० [ मं० पुर+घट्ट ] नगर की चहारदीवारी पर वने हुए बुर्ज [को०] । पुराण'-वि० [सं०] १ पुगतन । प्राचीन । जैसे पुराण पुरुष । २ अधिक आयु का । अधिक उम्र का (को०)। ३ जीर्ण (को०)। पुराण-सा पुं० १ प्राचीन धान्य । पुरानी कथा । सृष्टि, मनुष्य, देवों, दानवों, राजानो, महात्माप्रो आदि के ऐसे वृत्तात जो पुरुषपरपरा से चले आते हो । २ हिंदुओ के धर्ममवती अान्यानय थ जिनमे सृष्टि, लय, प्राचीन ऋपियो, गुनियो और राजानो के वृत्तात प्रादि रहते हैं। पुरानी वधायो की पोथी। विशेप-पुराण अठारह हैं। विष्णु पुराण के अनुसार उनके नाम ये हैं-विष्णु, पद्म, ब्रह्म, शिव, भागवत, नारद, मार्कंडेय, अग्नि, ब्रह्मवैवर्त, लिंग, वाराह, स्कद, वामन, कूर्म, मत्स्य, गरुड, ब्रह्माड और भविष्य । पुराणो में एक विचित्रता यह है कि प्रत्येक पुराण में प्रारहो पुराणों के नाम और उनकी श्लोकसख्या है । नाम प्रौर श्लोकमन्या प्राय सबकी मिलती है, कही कहीं भेद है। जैसे कूर्म पुगण में अग्नि के स्थान में वायुपुराण, माकंडेय पुराण मे लिंगपुराण के स्थान में नृसिंहपुराण, देवोमागवत में शिव पुराण के स्थान में नारद पुराण पोर मत्स्य में चायुपुगण है । भागवत के नाम से प्राजकल दो पुगण मिलते हैं-एक श्रीमद्भागवत, दूसरा देवीभागवत । कौन वास्तव में पुराण है इसपर झगडा रहा है। रामाश्रम स्वामी ने 'दुर्जनमुखचपेटिका' में निद्ध किया है कि श्रीमद्भागवत ही पुराण है। इसपर काशीनाथ भट्ट ने 'दुर्जनमुखमहाचपेटिका' तथा एक और पडित ने 'दुर्जनमुखपषपादुका' देवीभागवत के पक्ष में लिखी घो। पुगण के पांच लक्षण नहे गए हैं-मर्ग, प्रविननं (अर्थात् सृष्टि और फिर गृष्टि ), वश, मन्दतर और वशानुनरित्-'सर्गपच, पतिसगश्च, यशो, मन्वतराणि च । वशानुनरित चैव पुराणं पचलक्षारणम् ।' पुराणो मे विधान, वायु, मत्स्य प्रौर भागवत में ऐतिहानिक वृत्त-गजायो को वशाली प्रादि के रूप में बहुत कुछ मिलते हैं। ये वशारलियां यद्यपि बहुन मक्षित हैं और इनमें परमार कहीं कही विरोध भी है पर है बडे काम की। पुराणो की पोर ऐतिहासिकों ने इचर विशेष रूप से ध्यान दिया है और वे इन वशावलियों की छानबीन में लगे हैं। पुराणो मे सबसे पुराना विष्णुपुराण ही प्रतीत होता है । उसमें साप्रदायिक सींचतान और रागद्वेष नहीं है। पुराण के पांचो लक्षण भी उसपर ठीक ठीक घटते हैं। उसमें सृष्टि की उत्पत्ति और लय, मन्वतरों, भरतादि खडो मौर सूर्यादि लोकों, वेदो की शाखामों तथा वेदव्यास द्वारा उनके विभाग, सूर्य वश, नद्र वश मादि का वर्णन है । कनि के राजानो में मगध के मोर गजामो तथा गुप्तवश के राजाप्रो तक का उल्लेख है। श्रीकृष्ण की लीलामो का भी वर्णन है पर विलकुल उस रूप मे नही जिस रूप मे भागवत मे है। कुछ लोगो का कहना है कि वायुपुराण ही शिवपुगण है क्योकि भाजकल जो शिवपुराण नामक पुराण या उपपुराण है उसकी श्लोक संख्या २४,००० नहीं है, केवल ७,००० ही है । वायुपुराण के चार पाद है जिनमे सृष्टि की उत्पत्ति, कल्पो भोर मन्वत गे, वैदिक अपियो की गाथानो, दक्ष प्रजापति की कन्यामो से भिन्न भिन्न जीवोत्पति, सूर्यवंशी पौर चद्रवशी राजापो की वंशावली तथा कलि के राजापो का प्राय विष्णुपुगण के अनुसार वर्णन है। मरस्यपुराण मे मन्वतरो भौर राजवशावलियों के अतिरिक्त वर्राधम धर्म का वहे विस्तार के साथ वर्णन है और मत्स्यावतार की पूरी कया है। इसमे मय. प्रादिक अनुरों के सहार, मातृलोक, पितृलोक, मूर्ति और मदिर बनाने की विधि का वर्णन विशेष ढग का है। श्रीमद्भागवत का प्रचार सबसे अधिक है क्योकि उसमे भक्ति के माहात्म्य और श्रीकृष्ण की लीलायो का विस्तृत वर्णन है। नौ स्कधों के भीतर तो जीवब्रह्म की एकता, भक्ति का महत्व,
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/३४३
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