पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/४०३

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पौट ३११२ पोखना पॉट-सञ्ज्ञा पुं० [अ० प्वाइंट ] प्रतरीप । (लश०)। विरोप-गधे, खच्चर मादि लेकर चलने वाले लोगों को छू पोटा-सशा पुं० [देश॰] नाक का मल । जाने से बचने के लिये 'पोष' 'पोस' या 'पोइस पोइरा' पाँटा-सा पु० [अ० प्वाइट] रस्से का सिरा या छोर । (लश०) । पुकारते चलते हैं। पाँटी-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [देश॰] एक प्रकार की छोटी मछली। पोई'-मना पी० [सं० पूतिका या पोदिक ] एक लता जिसकी पत्तियो का लोग साग खाते हैं। पाँदना-क्रि० प्र० [हिं० पौंदना ] दे० 'पोढना'। उ०-रूप चद नदा के घर पोढे हैं।-दो सौ बावन०, भा० १, विशेप-इसकी पत्तियां पान की सी गोल पर दल को मोटी पृ० १६३। होती हैं। इसमें छोट छोटे फलों के गुच्छे लगते हैं जिन्हें पौन-सज्ञा पुं० [स० पवन, हिं० पौन ] दे० 'पवन' । उ०-नृप पफने पर चिटियां पाती है। पोई दो प्रकार की होती है- दीन हल्यो बहु चित्त चित । सुहल्या जनु पोनय पीप पतं ।- एक काले हठल की, दूसरी हरे दठल यो। वरमात में यह पृ० रा० १२११४ । (ख) सोई उपमा कविनद कथे। सजे बहुत उपजती है। पत्तियों गा लोग साग पाते हैं। एक मनो पोन पवग रथे ।-पृ० रा०,२५३२ । जगली पोई भी होती है जिसकी पत्तियां लवोतरी होती हैं। पोहचना-क्रि० प्र० [हिं०] १० 'पहुँचना'। उ०-पोहचे इसका साग अच्छा नहीं होता। पोई की लता मे रेशे होते मारण, प्राणियां, जल थल पवर जाय । -यौकी० ग्र०, है जो रस्सी बटने के काम में भाते हैं । वैद्यक में पोई गरम, रुचिकारक, फफवधक मोर निद्राजाक मानी गई है। भा०२, पृ०४४। पौहचाना-क्रि० स० [हिं०] दे० 'पहुँचाना' । उ०—जानको रहोला पर्या०-उपोदकी । कलमी । पिच्छिला । मोहिनी । विशाला । मठे मो जनक रे। जनक र पना पोहचाय जावा। -रघु० मदशाका । पूतिका । ६०, पृ० १०५ । पोई-सज्ञा ली [ स० पोत ] १ नरम कल्ला । अकुर । २ ईस पो-वि० [सं०] शुद्ध । पवित्र । स्वच्छ [को०) । का कल्ला । ईख की मौख । पोषा-सक्षा पुं० [सं० पुनक] १ साँप का बच्चा। संपोला ।२ मुहा०-पोई फूटना = ईस मे मंकुर निकलना। कीड़ा। उ०-वुझ ना बुझ भाल के कहे मद, पोमा पियह ३ गेहूँ, ज्वार, बाजरे मादि का नरम और छोटा पौधा जई । काहा कुसुम मकरद । -विद्यापति, पृ० ६३ । ४ गन्ने का पोर। पोभाना-कि. स० [हिं० 'पोना' का प्रे० रूप] १. पोने का पोई-वक्षा नी० [ सं० प्तुत या फा० पोयह ] घोडे की एक प्रकार काम कराना। २ गीले प्राटे की लोई को गोले रोटी के की चाल। 'पोइया'। रूप में बना बनाकर पकानेवाले को सेंकने के लिये देना। पोका-ससा पुं० [सं० पोप>पोस ] ६० 'पोस', 'पोप' । उ०- जैसे, रोटी पोमाना। महा पाल काछुई, चिन थन राख पोक । यौं करता सबकी सयो क्रि०-देना। -लेना । कर, पाले तीनिउ लोक ।-कबीर सा० स०, पृ०७१। पोधारा-सज्ञा पुं० [हिं० दे० 'पुपाल'। पोकना'-सज्ञा पु० [ देश०] महुए का पका हुमा फल । पोइट्री-सज्ञा स्री० [अ० ] काव्य । फविता । उ.-पोइट्री में पोकना-सज्ञा पुं॰ [ हिं० ] दे० 'पोकना' । वोलती थी, प्रोज मे विलकुल अडी। -कुकुर०, पृ० १६ । पोकना-क्रि० प्र० दे० 'पोंकना। पोइणी, पोइन-सज्जा स्त्री० [ सं० पद्मिनी, प्रा०, पठमिणी, श्रप०, पोकला - वि० [देश०] १ पुलपुला । नाजुक । कमजोर । २ पोला । राज० पोयण, पोइण ] कमलिनी। पदमिनी । उ०-(क) खोखला । ३ नि.सार । तत्वहीन । तत्वशून्य । जल पोइणिए छाइयउ, कहउ त पूगल जाहि । - ढोला०, पोकारना-क्रि० स० [हिं० ] दे० 'पुकारना' । उ०-सहन वर्ष दू० २४५। (ख) रम अभ तहै-भरे फुल्लि पोइन सुमुष्प प्रहण निर्धारा । पागम सत्य कवीर पोकारा।-कवीर सा०, वर। पृ० रा०१३।६६ । पृ०६३५ । पोइया'-सहा स्त्री॰ [फा० पोयपह ] घोटे की दो दो पर फेंकते पोख-ससा पुं० [सं० पोप] पालने पोसने का संबंध या लगाव । पोस। हुए दौड़ । सरपट चाल । उ०-फविरा पांच पखेरुमा राखा पोख लगाय । एक जो मुहा०-पोइयाँ जाना = दोनों पैर फेंकते हुए होडना । माया पारधी ले गया सबै उडाय।-कवीर (शब्द०)। पोइया-सचा स्त्री० [सं० पोदिको, हिं० पोय, पाई ] एक लता । पोखनरी-सचा सी० [हिं० पोखरा+नरी ] ढरकी के बीच का दे० 'पोई'। पोइस'--सञ्ज्ञा स्त्री॰ [फा० पोयह्, हिं० पोइया] सरपट दाल । दौड । गट्ठा जिसमें नरी लगाकर जुलाहे कपडा बुनते हैं । उ०–रे मन जनम अकारथ खोइस । कालयमन सो पानि पोखना'-क्रि० स० [सं० पोपण ] पालना । पोसना । उ०--मरे बनेहैं देखि देखि मुख रोइस। सूर श्याम बिनु कौन छुटाव कलानिधि निरदई कहा नघी यह माय । पोखत भमिरित चले जाहु भाई पोइस । -सूर (शब्द०)। कलन जग विरहिन हेत जराय । -रसनिधि ( शब्द०)। पोइस-प्रव्य० [फा० पोश ] देखो । हटो। बचो। पोखना-क्रि० स० गाय भैस आदि का बच्चा देने का समय समीप