पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/४०५

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पोटा २११४ पोतड़ा पोटा-सञ्ज्ञा पुं० [सं० पोत ] १ चिडिया का बच्चा जिसे पर न मुहा०—जी पोढ़ा करना-जी कडा करना। चित्त को दृढ़ निकले हो । गेदो । २ अकुर। उ०-नाभी माहि भया कुछ करना जिससे भय, पीड़ा दुख आदि से विचलित न हो। दीरघ पोटा सा दरसाया ।-दरिया० बानी, पृ० ५६ । पोढ़ाना-क्रि० स० [हिं० पोढ़ ] १ घढ़ होना। मजबूत होना। यो०-चेंगी पोटे। २ पक्का पहना। पोटा-सा पुं० [?] नाक का मल या श्लेष्मा । पोढ़ाना-क्रि० स० दृढ़ करना । पक्का करना । घढाना । क्रि०प्र०-बहना। पोदाना-क्रि० स० [हिं० ] दे॰ 'पौढाना'। उ०-~याछे श्री पोटा-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ स०] १ वह स्त्री जिसमे पुरुष के से लक्षण ठाकुर जी को पोढाइ वाहिर की टहल सो पहौंचि प्रसाद ले हो । नृलक्षणा स्ली । पुरुपलक्षणो से युक्त । जैसे, दाढ़ी या मुछ मुरारीदास सोवते ।-दो सौ बावन०, भाग १, पृ० १०२ । के स्थान पर बाल उगना । २ दासी । ३ घडियाल । पोत'-सञ्ज्ञा पु० [सं०] १ पशु पक्षी प्रादि का छोटा वच्चा । २ छोटा पौधा । ३ वह गर्भस्थ पिंड जिसपर झिल्ली न चढ़ी हो। पोटाश, पोटास-शा पु० [अ० पोटाश ] वह क्षार जो पहले यौ०-पोतज = जो जरायुज न हो। जलाए हुए पौधो की राख से निकाला जाता था, पर अब ४ दस वर्ष का हाथी का बच्चा । ५ घर की नीव । ६ कपडा। कुछ खनिज पदार्थों से प्राप्त होता है। पट। ७. कपडे की बुनावट । जैसे, जैसे-इस कपडे का पोत विशेष-पौधो की राख को पानी में घोलकर निथारते हैं फिर मच्छा नहीं है । ८ नौका । नाव । ९ जहाज । उस निथरे हुए पानी को भौटाते हैं जिससे क्षार गाढ़ा होकर यौ०-पोतधारी। पोतप्लव = मल्लाह । माझी । = पोतभग- नीचे जम जाता है । चुकदर की सीठी (चीनी निकालने पर पोत का टूटना । पोतरस = पतवार । पोतवरिणक । पोतवाह । वची हुई ) और भेडो के ऊन से भी पोटास निकलता है। शोरा, जवाखार प्रादि पोटास ही हैं। पोटास मौषष पोर पोतर–सञ्चा श्री० [सं० प्रोता, प्रा० पोता ] १. माला या गुरिया शिल्प में काम आता है। का दाना । २ कांच की गुरिया का दाना। यह भनेक रगो का होता है और कोदो के दाने के बराबर होता है। निम्न पोटिक-सञ्ज्ञा पु० [ स०] पिटिका । फोडा (को०] । वर्ग की स्त्रियां इसे तागे में गूंथकर गले में पहनती हैं। पोटी-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० पोटा ] दे० 'पोटा'। इसे लोग छडी और नैच आदि पर भी लपेटते हैं। उससे सोनार गहनो को भी साफ करते हैं ।-उ०—(क) पतिव्रता पोटी-सज्ञा पु० [सं०] १ बठा नक्र । बडा घरियाल । २ गुह्य । मैली भली गले कांच की पोत । सब सखियन में देखिए ज्यो गुदा [को०] । सूरज की जोत ।-कवीर (शन्द०)। (ख) झीना कामरि पोटेशियम साइनाइड - पचा पुं० [अ० ] एक प्रकार का भत्यत काज कान्ह ऐसी नहिं कीजै। कांच पोत गिर जाइ नद घर जहरीला श्वेत पौर स्वच्छ पदार्थ जो कच्ची धातु से सोने गयो न पूजे।-सूर (शब्द०)। (ग) फिरि फिरि कहा को अलग करने और कीडे मारने आदि के काम में भाता है। सिखावत मौन । यह मत जाह तिन्हें तुम सिखवो जिनही पोट्टल-मज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पोटल' । यह मत सोहत । सूर आज लों सुनी न देखी पोत पूतरी पोहलिका, पोट्टलो-- ज्ञा ली० [म०] पोटली । गठरी (को०] । पोहत ।-सूर (शब्द०)। पोत-सज्ञा पुं॰ [सं० प्रवृत्ति, प्रा० पठत्ति ] १ ढग । ढव । प्रवृत्ति । पोठी --प्रज्ञा बी० [ दश०] एक प्रकार की छोटी मछली । उ०-नीच हिए हुलसे रहैं गहे गेंद के पोत । ज्यो ज्यो माथे पोठी नाले के बाहर भाकर उछल रही थी।-रति० मारिए त्यो त्यों ऊँचे होत ।-बिहारी (शब्द॰) । २ वारी। पृ०११४ । दाँव । पारी। पवसर । प्रोसरी। पोडु- स्त्री॰ [ म० ] कपाल का अस्थितल । खोपड़ी के ऊपरी मुहा०-पोत पूरा करना=कमी पूरी करना। ज्यो त्यो करके भाग की हड्डी [को०] । किसी काम को पूरा करना । पोत पूरा होना = कमी पूरी पोढ -वि० [सं० प्रौढ, प्रा० पोढ] दे० 'पोढ़ा' । उ०—(क) मान होना । ज्यो त्यों करके किसी काम का पूरा होना । न करसि, पोढ़ करु लाड । मान करत रिस मानै चाडू ।- पोत-सञ्ज्ञा पुं० [फा० फोत ] जमीन का लगान । मुकर । जायसी प्र०, पृ० १३३ । (ख) मोही सुरति पोढ़ पद लारी। पोतक-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] १ दे० 'पोत'। २ बच्चा। शिशु । उ०- तेज भास लखि सुरति निहारी।--घट०, पु० २७१ । जो सब पातक पोतक दाकिनि ।-मानस २ । १३२ । ३ पोढ़ा-वि० [सं० प्रौढ, प्रा० पोढ ] [ सी० पोढ़ी ] १ पुष्ट । दृढ़ महाभारत के अनुसार एक नाग का नाम । मजबूत । उ०-फही छटना छाज पिटारी है कहीं विकती पोतकी-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं०] पूतिका । पोई नाम की लता । खाट खटोला है। जब देखा खूब सो माखिर को ना पोढ़ो पोतदा-सचा पुं० [सं० पोत = (कपडा)] वह कपडा जो बच्चों खाट न चरखा है।-नजीर (शब्द०) । २. दृढ़ । कड़ा । के चूतडों के नीचे रखा जाता है। गतरा। उ०-रेसम कठिन । कठोर । उ०-तीखी हेर चीर गहि मोढ़ा । कतन हदा पोतडा पालगिए पोढाय । --बाँकी० प्र०, भा० २, हेर कीन्द जिय पोढ़ा ।—जायसी (शम्ब०) । पु०२७॥ JO