पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/४०८

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पोल पोपली पोपली-सज्ञा स्त्री॰ [हिं० पोपला ] प्राम की गुठली घिसकर बनाया पोरिया-सञ्ज्ञा पुं० [हि० ] दे० 'पौरिया' । उ०—सो पोरिया हुमा बाजा जिसे लडके वजाते हैं। प्रभुन को खबरि करी।-दो सौ वावन०, भा० १, पृ० १६१ पोपो-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ अनु० ] मलत्याग करने की इद्रिय । गुदा । पोरी' सञ्चा त्री० [ देश० ] एक प्रकार की कडी मिट्टी । पोमा-सज्ञा पुं० [सं० पद्म, प्रा०पउम, पोम ] [ मी० पोमिन, पोरी२--सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ स० पर्व, हिं० पोर ] दे० 'पोर' । उ०-हि पोमिनि, पोमिनी ] दे० 'पद्म' । सहज विश्वास हृदय का अ गुलियो की कपी पोरिया। पोमानाg+-क्रि० प्र० [स० प्रफुल्न या सं० पद्म, प्रा० पठम, पोम] हस०, पृ० २५॥ पोरी-सज्ञा सी० [हिं०] दे० 'पोरी' । उ०-मव सिंघ द्वार फूलना। गर्व करना। पुसत्व का अभिमान करना । उ०-- पोरी पर वैठिवे को कौन को प्राज्ञा करत हो।-दो पापड फोड पोमावही मन में मावडियाँह । --बाँकी० ग्र०, भा०२,पृ०१६ । बावन०, भा० १, पृ० २१८ । पोमिन--सञ्ज्ञा स्त्री० [सं० पणिनी. प्रा. पोमिणी] दे० 'पद्मिनी। पोरुत्रा-सज्ञा पु० [हिं० पोर +उवा (प्रत्य०)] पोरिया। पौरिर उ०--पोमिन बन नहिं चरहि नहिन सचरहि कुमुद बन । पोर्च-सञ्ज्ञा पुं॰ [40] बरामदा । दालान । ईष पेत परहरहि जीर पर हुप विरत्त मन । पृ० रा०, पोर्चुगीज-वि० [अ० ] दे० 'पुर्तगीज' । ६।१०१। पोर्ट-सज्ञा पुं॰ [ पुर्त० पोर्टो ] १ अगूर से बनी हुई एक पोया-सहा सी० [हिं० ] दे० 'पोई'। की शराब। पोयण+-सज्ञा स्त्री० [हिं० पुरइन या प्रा० पोमिण ] कमल । विशेष—यह भभके से नहीं चुभाई जाती, अगूर के रस को पुरइन । उ०-मेवाणो तिण माह पोयण फूल प्रताप सी।- में सडाकर बनाई जाती है। इसमें मादकता नाम अकवरी०, पृ० ४४। की होती है, इससे इसका सेवन पुष्टई के रूप में पोया-सञ्ज्ञा पु० [सं० पोत] १. वृक्ष का नरम पौधा । २ बच्चा । ३ करते हैं। इसे द्राक्षासव कह सकते हैं। साप का छोटा बच्चा । सपोला। २ समुद्र या नदी के किनारे वह स्थान जहाँ जहाज माल • पोर-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [स० पर्व ] १ उंगली की गांठ या जोड जहाँ से रने या लादने या मुसाफिर उतारने या चढाने के लिये व वह मुक सकती है। २. उँगली में दो गांठों या जोड़ों के बीच आकर ठहरते हैं। बदर । बदरगाह । जैसे, कलकत्सार की जगह । उगली का वह भाग जो दो गाँठो के बीच हो। ३ समुद्र के किनारे, खाडी या नदी के मुहाने पर बना ३ ईख, वास, नरसल, सरकडे मादि का वह भाग जो दो या प्राकृतिक स्थान जहाँ जहाज तूफान से अपनी रक्ष गाँठो के बीच हो। उ०-(क) श्रीति सीखिए ईख सो पोर सकते हैं। पोर रस होय । (शब्द०) (ख) पोर पोर तन प्रापनी मनत पोर्टर-सज्ञा पुं० [अ० ] वह जो बोझ ढोता हो। विधायो जाय । तब मुरली नदलाल पै भई सुहागिन प्राय । रेलवे स्टेशन और जहाज के डक पर मुसाफिरो का -स० सप्तक पृ० २१०। असबाब ढोनेवाला । रेलवे कुली। डक कुली। जैसे,- यो०-पोर पोर पोर पोर मे। दिन बंवई के विक्टोरिया ठरमिनस स्टेशन के पोर्ट ४. रीढ | पीठ। उ०—मनमोहन खेलत चौगान । द्वारावती गहरी मार पीट हो गई। कोट कचन में रच्यो रुचिर मैदान । यादव वीर वराए इक पोल'-मज्ञा पु० [हिं० पोला ] १ शून्य स्थान । अवकाश । इक, इक हलघर, इक अपनी ओर। निकसे सबै कुंवर जगह । जैसे, ढोल के भीतर पोल । २ खोखलापन । प्रसवारी उच्चश्रवा के पोर।-सूर (शब्द०)। का प्रभाव । सारहीनता । मत सारशून्यता। पोर-सञ्ज्ञा पु० [?] जहाज की रखवाली या चौकसी करने यौ०-पोलदार = जिसमे पोल या खोखलापन हो। वाले कर्मचारी या मल्लाह । (लश०)। खोखला। पोलपाल = खोखलापन । जो भीतर से । पोरसा-सचा पु० [सं० पुरुपस्व ] पुरुष । स्वामी। उ०—(क) खाली हो। उ०-ये सव पोलपाल कर लेखा। मिश्र सतगुरु पारस पोरसा प्राख प्रभय भंडार ।-रज्जब०, पृ० कहै बिन देखा।-घट०, पृ० ५६२ । १०। (ख) पारस नह नह पोरसो, पातर राखे पास । मुहा०-(किसी की) पोल खुलना = भीतरी दुरवस्था -बाँकी० ग्र०, भा०२, पृ०३। हो जाना। छिपा हुआ दोष या बुराई प्रगट हो . पोरा-सज्ञा स्त्री० [हिं० पोर ] १ लकडी का मंडलाकार टुकड़ा। भहा फूटना । (किसी की ) पोल खोलना = भीतरी दु लकडी का गोल कुदा । २ कुदे की तरह मोटा पादमी। प्रगट करना । छिपे हुए दोप या बुराई को प्रगट ५ पोरिया-सचा स्त्री॰ [हिं० पोर + इया (प्रत्य॰) ] चाँदी का एक भडा फोडना। गहना जो हाथ पर की उँगलियो की पोरों में पहना जाता पोल–सञ्चा पुं० [स०] १. एक प्रकार का फुलका । २. राशि है। यह छल्ले का सा होता है पर इसमें घुघरू के गुच्छे या (को०)। ३ मान । परिमाण (को०)। झब्बे लगे रहते हैं। पोल:- सञ्चा पुं० [ स० प्रतोली, प्रा० पोली] १. कही ज