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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/४५६

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प्रतीर ३१६५ प्रत्यन्चेतन - 29 पदोसी। प्रतीर-सञ्ज्ञा पुं० [म.] किनारा। तट । उ०-पूरी निर्मल नीर वीथी । गली । पूचा । ३ दुर्ग का यह द्वार जो नगर की पौर से बह रही थी पास ही मालिनी । वृक्षाली जिसके प्रतीर पर हो। ४ फोडो आदि पर पट्टी बांधने का एक ढंग। इस ढंग थी, भूरि प्रभा शालिनी।-शकु०, पृ० १६ । की पट्टी ढोडी प्रादि पर बांधी जाती है। ५. इन ढग गे बाँधी प्रतीवृता-वि० सी० [ म० पतिव्रता, पु० हिं० पतिवृत्ता] हुई पट्टी। ६ किले के नीचे होकर जानेवाला गस्ता। 'पतिव्रता' उ.-जोगी कहै प्रतीवृता । सुणेस हुई नच्यत । प्रतोप-सज्ञा पु० [२०] १. सतोप । तुष्टि । २. पुराणानुसार प्रीव पारी छान्यो छह मास वसत ।-बी० रासो, पृ० ६४ । स्वायंभू मनु के एक पुत्र का नाम । प्रतोपना-क्रि० स० [सं० तोपण] प्रतोष देना । सतोप प्रतीवाप-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] १ वह औषध जो पीने के लिये काढ़े प्रापि में मिलाया जाय । २. दैवी उपद्रव । ३ फेंकने की क्रिया । देना । समझाना वुझाना । श्राएवस्त करना । ७०-राम प्रतोपी मातु सब कहि विनीत वर वैन ।-राम०, ११३६२ । ४. किसी चीज को बदलने के लिये उसे किसी दूसरी चीज प्रत्त-वि० [सं०] १ प्रदत्त । दिया हुना। उपत। २. विवाह में मिलाना । धातु प्रादि का मिश्रण करना । मे प्रदत्त मो०]. प्रतीवेश-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] प्रतिवेश । पडोस । प्रत्ल-वि० [सं०] १ पुराना। प्राचीन । २ परपराप्राप्त । प्रतीवेशी-सञ्ज्ञा पुं० [ म० प्रतीवेशिन् ] पड़ोस में रहनेवाला। परपरागत (को०)। प्रत्नतत्व-सज्ञा पुं० [सं०] वह जिसमें प्राचीन काल की बातों का प्रतीवेश्य-सशा पुं० [ स०] पुराणानुसार एक प्राचीन देश का विवेचन हो । पुरातत्व । का नाम। प्रत्यग-सज्ञा पुं० [सं० प्ररयड्ग ] १ शरीर का कोई अपघान या प्रतीष्ट-वि० [सं०] स्वीकृत । प्राप्त [को०] । गौण अग। २ विभाग । सह । परिच्छेद । ३. प्रत्येक अंग। प्रतीह-सज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार परमेष्ठी के एक पुत्र का नाम हर एक अवयव । ४ एक अस्त्र का नाम (को०] । जिसका जन्म सुवर्चला के गर्भ से हुआ था । प्रत्यंग-फ्रि० वि० प्रत्येक अग मे । हरएक अवयव मे [को०] । प्रतीहार-सञ्ज्ञा पुं० [ स०] १ दे० 'प्रतिहार'। २ संधि का एक प्रत्यगिरा'-सञ्ज्ञा पुं॰ [स० प्रत्यशिरस् ] पुराणानुसार चाक्षुष मन्वंतर भेद । वह मेल या सघि जो कोई यह कहकर करता है कि के अगिरस के पुत्र एक ऋषि का नाम । पहले मैं तुम्हारा काम कर देता हूँ पीछे तुम मेरा करना । प्रत्यंगिरा-मञ्ज्ञा स्त्री. १. सिरस का पेठ । २ विसखोपरा । प्रतीहारी'-तक्षा पुं० [सं० ] दे० 'प्रतिहारी' । ३. तांत्रिकों की एक देवी का नाम | प्रतीहारी-सहा स्त्री० द्वाररक्षिका । प्रतिहारी। प्रत्यंच-सशा सी० [स० पतञ्चिका ] धनुप की डोरी जिसमें प्रतीहास-मज्ञा पुं॰ [सं० ] कनेर । लगाकर वाण छोटा जाता है। निल्ला। प्रतुंदक-सज्ञा पु० [सं० प्रतुन्दक ] जीवक नाम का साग । प्रत्यंचा-संश सी० [हिं० प्रत्यञ्च ] द० 'प्रत्यच' । उ०-वाम प्रतुद-सज्ञा पुं॰ [स०] १ वे पक्षी जो अपना भक्ष्य चोच से तोडकर पारिण में प्रत्यचा है, पर दक्षिण गे एक जटा ।-सावेत, खाते हैं। २. कोचने या भेदन का उपकरण। वह जिससे कोई वस्तु तोडी या भेदी जाय (को०) । प्रत्यंचित-वि० [सं० प्रत्यञ्चित] पूजित | अचित । सम्मानित [को०] । प्रतुष्टि-सज्ञा स्त्री॰ [ म० ] सतोष । सतुष्टि । तृप्ति (को०] । प्रत्यजन-संज्ञा पुं॰ [ म० प्रत्यञ्जन] १, प्राख में अंजन लगाकर उसे पच्छा करना।२ लेपन करना। प्रतूणी-राज्ञा स्त्री० [सं०] स्नायु की दुर्बलता से होनेवाला एक रोग जिसमें गुदा से पीडा उत्पन्न होकर भैतडियो तक पहुंचती है । प्रत्यंत-यशा पुं० [स० प्रत्यन्त] १ म्लेच्छो के रहने का देश । २. सीमा (को०)। प्रतूद--सज्ञा पुं० [सं० ] एक वैदिक ऋपि का नाम जिनका उल्लेख ऋग्वेद में है। प्रत्यंतपर्वत-तरा पुं० [स० प्रत्यन्तपर्वत ] नह पोटा पहाट जो फिसी वडे पहाड के पास हो। प्रतूर्ण, प्रतूत-वि० [म० ] वेगवान । तीव्र [को०] । प्रत्यक्-क्रि० वि० [सं०] १ पीछे । विपरीत दिशा में । २ प्रतेक-वि० [सं० प्रत्येक ] दे॰ 'प्रत्येक' । 30-पल्लव पृहुप पश्चिम । ३. विरोध मे (को०)। ४. पहले। पूर्व बाल प्रतेक पैग में कछु लगि घावत ।-रत्नाकर, भा०१, मे (को०)। पृ० १२॥ प्रत्यक-वि० [हिं०] दे० 'प्रत्यक्ष' । उ०-चौरउ कष्ट करे प्रति प्रतूलिका-सञ्ज्ञा स्त्री० [स०] विस्तर । गद्दा । तोशक [को॰] । वरि प्रत्यक प्रातम तत्व न पेपै । स दर मिल गयो निज रूपा प्रतोद-सक्षा पु. [सं०] १ पैना। प्रौगी। प कुश । २ चावुक । है कर नंकरण दर्पण दे।-सुपर ग्रा, भा०२, पृ० ५८६ । कोहा । हटर । ३ एक प्रकार का सामगान । प्रत्यक्चेनन- पु. [सं०] १. योग के अनार कह पुरष जिर प्रतोली- सज्ञा सी० [सं०] १ यह चौडा रास्ता जो नगर के मध्य से चित्तवृति विलकुल निर्मल हो ना हो, जिनो आत्मना होकर निकला हो। पौडी सडक । शाहराह । राजपथ । २ दो गुका हो और जो प्राव पाटि का जप करके । पृ० ३६७1