पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/४५८

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जाते हैं। प्रत्यक्षो ३१६७ प्रत्यभिन्नादर्शन प्रत्यक्षी-मज्ञा पुं० [स० प्रत्यक्षिन् ] व्यक्तिगत रूप से देखनेवाला ते जीत्यो निज रूप तें मदन वैर यह मान । बेघत तुब अनु- साक्षी । प्रत्यक्ष या साक्षात् द्रष्टा । वह व्यक्ति जिसने प्रत्यक्ष रागिनी, इक सँग पांचौ वान।-(शब्द०)। २ शत्रु । दुश्मन रूप से देखा हो किो०] । ३ प्रतिपक्षी। विरोधी । मुकाबला करनेवाला। ४ प्रति- वादी। ५ विघ्न । वाधा। प्रत्यक्षीकरण-सज्ञा पुं॰ [स०] आँखों से दिखला देना। इद्रिय द्वारा ज्ञान करा देना। सामने लाकर प्रत्यक्ष करा देना। उ० प्रत्यनुमान-प्रज्ञा पुं॰ [ स०] तर्क में वह अनुमान जो पिसी दूसरे इन स्थलो के वर्णन मे हमे हाट, वाट, नदी, निर्भर, ग्राम, के अनुमान का खडन करते हुए विया जाय । जनपद इत्यादि न जाने कितने पदार्थों का प्रत्यक्षीकरण प्रत्यपकार-सज्ञा पुं॰ [ म०] वह अपवार जो किसी प्रकार के मिलता है । -चिंतामणि, भा॰ २, पृ० ३ । वदले में किया जाय। प्रत्यक्षीकृत-वि० [सं०] जिसका प्रत्यक्षीकरण हुआ हो। जो आँखो प्रत्यभिज्ञा-सवा सौ० [म० ] १. वह ज्ञान जो किसी देखी हुई चीन से देखा गया हो (को०] । को, अथवा उसके समान किसी और चीज को, फिर से देखने पर हो। स्मृति की सहायता से उत्पन्न होनेवाला प्रत्यक्षीभूत-वि॰ [ स०] जिसका ज्ञान इद्रियो द्वारा हुअा हो । जो प्रत्यक्ष हुमा हो। ज्ञान । २ वह अभेद ज्ञान जिसके अनुसार ईश्वर और जीवात्मा दोनों एक ही माने जाते हैं। ३ कश्मीर का एक प्रत्यग-सचा पु० [स०] 'प्रत्यक्' का समासगत रूप । शैव दर्शन या शैवाद्वैतवाद । दे० 'प्रत्यभिज्ञादर्शन'। प्रत्यगत ए-मज्ञा पुं॰ [ स० प्रत्यागत ] कुश्ती का एक पेच । प्रत्या- प्रत्यभिज्ञात-वि० [स०] जाना हुग्रा । पहचाना हुआ (को०] । गत । उ०-जे मल्लयुद्धहि पेच बत्तिश गतह प्रत्यगतादि । प्रत्यभिज्ञादर्शन-सञ्ज्ञा पु० [ स०] माहेश्वर संप्रदाय का एक दर्शन -रघुराज (शब्द०)। जिसके अनुसार भक्तवत्सल महेश्वर ही परमेश्वर माने प्रत्यगात्मा-या पु० [ स० प्रत्यगात्मन् ] व्यापक ब्रह्म । परमेश्वर । प्रत्यगाशा-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [स] पश्चिम दिशा [को०] । विशेष-इस दर्शन मे तंतु प्रादि जड पदार्थों को पट आदि यौ०-प्रत्यगाशापति = पश्चिम दिशा के स्वामी, वरुण । कार्यों का कारण न मानकर केवल महेश्वर पो सारे जगत् प्रत्यग्या@-सज्ञा स्त्री० [सं० प्रतिज्जा, प्रतिज्ञा ] दे० 'प्रतिज्ञा' । का कारण माना है, और कहा है कि जिस प्रकार ऋषि आदि उ०-अचरज देखि राजा तव रहा मिली प्रत्यग्या जो गुन बिना सीसयोग के हो मानसपुत्र उत्पन्न करते हैं, उसी कहा।-हिंदी प्रेमगाथा०, पृ० १८६ । प्रकार महादेव भी जड जगत् की किसी वस्तु की सहायता के बिना ही केवल अपनी इच्छा से जगत् का निर्माण करते हैं। प्रत्यग्र-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार उपरिचर वसु के एक पुत्र इस मत के अनुसार किसी कार्य का कारण महेश्वर के का नाम । प्रत्यग्र–वि० १. नया । ताजा । २ शुद्ध । पवित्र (को०) । अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता। महेश्वर को न प्रत्यप्रगधा-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं० प्रत्यप्रगन्धा] स्वर्णयूथिका । सोनजूही । तो फोई सृष्टि करने के लिये नियुक्त या उत्तेजित करता है और न उसे किसी पदार्थ की सहायता की अावश्यकता प्रत्यप्रथ-[सं०] दक्षिण पाचाल या अहिच्छत्र नामक देश । होती है । इसी लिये उसे स्वतत्र कहते हैं । जिस प्रकार दर्पण विशेष-दे० 'अहिच्छत्र'। में मुख दिखाई देता है, उसी प्रकार जगदीश्वर में प्रतिविव प्रत्यग्रवय-वि० [सं०] यौवन से परिपूर्ण। जो भरी या चढ़नी पड़ने के कारण सब पदार्थ दिखाई देते हैं। जिस प्रकार जवानी में हो [को०] । बहरूपिए तरह तरह का रूप धारण करते हैं उसी प्रकार प्रत्यड मुख-वि० [सं०] पश्चिम की पोर मुंह किए हुए [को०] । महेश्वर भी स्थावर जगम आदि का रूप धारण करते हैं प्रत्यच्छ-वि० [स० प्रत्यक्ष ] दे॰ 'प्रत्यक्ष'। उ०-श्रीठाकुर जी पौर इमी लिये यह सारा जगत् ईश्वरात्मक है । महेश्वर प्रत्यच्छ मुरारीदास सो वार्ता करते । -दो सौ बावन०, ज्ञाता और ज्ञान स्वरूप है, इसलिये घट पट प्रादि का जो भा० १, पृ० १००। ज्ञान होता है, वह सब भी परमेश्वर स्वरूप ही है। प्रत्यध्मान-सज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का वात रोग। इस दर्शन के अनुसार मुक्ति के लिये पूजापाठ पौर जपतप यादि प्रत्यनंतर-वि० [स० प्रत्यनन्तर ] सन्निकट । समीपवर्ती। प्रत्या- की कोई मावश्यकता नहीं, केवल प्रत्यभिज्ञा या इस शान की सन्न (को०] 1 अावश्यकता है कि ईश्वर और जीवात्मा दोनो एक ही हैं। प्रत्यनीक-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] १ कविता का वह अलकार जिसमें इस प्रत्यभिज्ञा की प्राप्ति होते ही मुक्ति का होना माना जाता किसी के पक्ष में रहनेवाले या सबधी के प्रति किसी हित या है। इसी लिये इसे प्रत्यभिज्ञा दर्शन कहते हैं। इस दर्शन फे अहित का किया जाना वर्णन किया जाय । जैसे, (क) तो अनुसार जीवात्मा भौर परमात्मा में कोई भेद नही माना मुख छवि सो हारि जग भयो कलक समेत । सरद इदु जाता है। इसी लिये इस मत के लोग रहते है कि जिस अरविंद मुख परवंदन दुख देत । -मतिराम (शब्द०)।(ख) मनुष्य में ज्ञान और क्रियाशक्ति है वही परमेवर है, पौर पपने मंग के जानि के यौवन नृपति प्रवीन । स्तन मन नैन जिसमें ज्ञान पोर क्रियाशक्ति नहीं है, वह परमेश्वर नहीं है। नितंब को बड़ो इजाफा कीन ।-विहारी (शब्द०)। (ग) परमेश्वर सब स्थानों में और स्वत प्रकाशमान है । जीवारमा