पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/३९६

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भाँवर (शब्द०)। २. हल जोतने के समय एक बार खेत के चारों यौ०-भाई बिरादरी। पोर घूम, पाना । ३. अग्नि की वह परिक्रमा जो विवाह -४. बराबर वालों के लिये एक प्रकार का संबोधन । जैसे,-भाई के समय वर और वधू मिलकर करते हैं । पहले यहां बैठकर सब बातें सोच लो । उ०-वर अनुहार कि०प्र०-फिरना ।-लेना । बरात न भाई। हंसी करइहउ पर पुर जाई ।-तुलसी भाँवर-संज्ञा पुं० [सं० भ्रमर ] दे० 'भौरा। उ०-श्री हरिदास (शब्द०)। के स्वामी स्यामा कुज बिहारी पै वारोगी मालती भांवरो- मुहा०-भाइयों को मूछे उखाड़ना- अपनों को अपमानित हरिदास (शब्द०)। करना । उ-जिनको वीर होने का दावा है, वे भाइयों की भाँवरा-संज्ञा पुं० [सं० भ्रमर ] भौरा । मूर्छ उखाड़कर मूछे मरोड़ रहे हैं ।-नुभते०, पृ० ३ । भाँवरि, भाँवरी-संज्ञा स्त्री० [हिं० भाँवर ] दे० 'भावर' । उ०- भाईचारा-संवा पुं० [हिं० भाई+चारा (प्रत्य॰)] १. भाई के विरह भंवर होइ भाँवरि देई । खिन खिन जीव. हिलोरहि समान होने का भाव । बधुत्व । २. परम मित्र या बंधु होने लेई।-जायसी (गुप्त), पु. ११६ । का भाव। भाँसा-संज्ञा स्त्री॰ [ सं० भाष ] बोल । अावाज । ध्वनि । वकार । भाईदूज-सज्ञा स्त्री० [हिं० भाई+दूज ] यमद्वितिया। कार्तिक भा'-संञ्चा स्त्री० [सं०] १. दीप्ति । चमक । प्रकाश । उ०-मनि शुक्ल द्वितीया। भैया दूज । कुंडल पति मा खुलनि डुलनि सु ललित कपोल । -घनानंद, विशेष-इस दिन बहन अपने भाई को टीका लगाती है और पृ० २६६ । २. शोभा । छटा । छवि। ३. किरण। रश्मि । भोजन कराती है। ४. बिजली । विद्युत् । भाईपन-संज्ञा पुं० हिं० भाई+पन (प्रत्य॰)] १. भ्रातृत्व । भा-मध्य० चाहे । यदि इच्छा हो। वा। उ०-जो भावं सो भाई होने का भाव । २. परम मित्र या बधु होने का भाव । कर खला इन्हें वॉव भा छोर। हैं तुव सुबरन रूप के ये दृग भाईचंद-संज्ञा पु० [हिं० भाई+बंधु ] भाई और मित्र बंधु मेरे चोर ।-रसनिधि (शब्द० ) भादि। अपनी जाति मोर विरादरी के लोग। नाते और भाइ@17--संज्ञा पुं० [सं० भाव ] १. प्रेम'। प्रीति । मुहब्बत । बिरादरी के मादमी। उ.-पाय मागे लेन मार दिए हैं पठाय जन देखी द्वारावती भाई बिरादरो-श्री० [हिं० भाई+बिरादरी ] जाति या कृष्ण मिले बहु भाइ के।-प्रियादास (शब्द॰) । २. समाज के लोग। स्वभाव । भाव । उ०--भोरे भाई भोरही हा खेलन गई ही भाउ@-संञ्चा पुं० [सं० भाव ] १. चित्तवृचि । विचार । भाव । खेल ही में खुल खेले कछु औरै कढ़ि रहयों है।-देव २. प्रेम। प्रीति । उ०-(क) ते नर यह सर तजइ न (शब्द०)। ३. विचार । उ०-पिता घर मायो पति भूख काऊं। जिनके राम चरन भल भाऊ ।-तुलसी (शब्द०)। ले सतायो प्रति माँगे तिया पास नहीं दियो यह भाइ के ।- (ख) राग रोष दोष पोषे गोगन समेत मन इन्ह की भगति प्रियादास (शब्द०)। कोन्हों इन्हही को भाउ मै । —तुलसी (शब्द०)। (ग) सो भाइ २ संज्ञा स्त्री० [हिं० भाँति ] १. भांति। प्रकार । तरह । पद पंकज सुंदर नाउ। इत ही 'राखि गए भरि भाउ ।- उ०—(क) तब ब्रह्मा सो कह्यो सिर नाइ। जे ह है हमरी नद००, पृ० २२६॥ किहि भाइ । —सूर (शब्द०)। (ख) प्राशु बरपि हियरे भाउ-संज्ञा पुं० [सं० भव ] उत्पत्ति । जन्म । उ० -होत न भूतल हरषि सीतल सुखद सुभाइ। निरखि निरखि पिय मुद्रिकाहि भाउ भ रत को। पचर सचर चर अवर करत को। तुलसी घरनति हैं वहु भाई। केशव (शब्द०)। २. ढंग । चाल- (शब्द०)। ढाल | रंग ढंग । उ०-बहु बिघि देखत पुर के भाइ। राज भाउ-सञ्ज्ञा पुं० दे० 'भाव'। सभा महँ बैठे जाइ। केशव (शब्द०)। भाउन @-वि० [सं० भावन ] सुदर । मच्छा । उ०-अरुन बसन भाइप@t-संज्ञा पुं० [हिं० भाई+५ (पन ) (प्रत्य॰)] १. तन मैं पहिरि पोत सु दौना हाथ । साउन मैं भाउन लगत भाईचारा | भाईपन । २. मित्रता । बंधुत्व । सखी सुहावन साथ।-स० सप्तक, पु० ३३६ । भाई-संज्ञा पुं० [सं० भ्रातृ ] १. किसी व्यक्ति के माता पिता से । भाउर-सञ्चा स्त्री० [स० भ्रमण ] दे॰ 'भाँवर'। उ०-गात उत्पन्न दूसरा पुरुष । किसी के माता पिता का दूसरा पुत्र । गुराई हेम का दुति सु दुराई केत । फज बदन छवि जान बहन का उलटा । बधु । सहोदर । भ्राता । भैया । २. किसी मलि भूलि भाउरे लेत।-स० सप्तक, पृ० ३८४ । वंश या परिवार की किसी एक पीढ़ी के किसी व्यक्ति के लिये उसी पीढ़ी का दूसरा पुरुष । जैसे, चाचा का लड़का = भाऊ'-सञ्ज्ञा पु० [सं० भातृ भाई। चचेरा भाई; फूफी का लड़का = फुफेरा भाई; मामा का भाऊ-संञ्चा पु० [ सं० भाव ] १. प्रेम। स्नेह । मुहब्बत । खड़का-ममेरा भाई। ३. अपनी जाति या समाज का कोई 3.-पुनि सप्रेम बोलेउ खग राक। जो कृपाल मोहि ऊपर व्यक्ति । बिरादरी। भाक।-सुलसी (शब्द०)। २. भावना। ३. स्वभाव । -