फलराज ३२८२ फलाँग प्राप्ति या उसके नायक के उद्देश्य की सिद्धि हो । २. फल फलसपत् --संज्ञा स्त्री॰ [ सं० फलसम्पत् ] १. फल' की अधिकता । मिलना । फल की प्राप्ति (को०)। ३. वेतन । मजूरी (को०) । २. सफलता [को०] । फलराज-संज्ञा पुं० [सं०] १. तरबूज । २. खरबूजा । फलसंबद्ध-संज्ञा पुं० [सं० फलसम्बद्ध ] गूलर । फलरुहा-संज्ञा म्नी० [सं० फरहा ] पाडर ।-अनेकार्थ०, पृ० ५४ । फलसंभारा-संघा स्री० [सं० फनसम्भारा] कृष्णोदुबरी। कसूमर । फललक्षणा-मज्ञा स्त्री० [सं० ] एक प्रकार की लक्षणा । विशेष- फलसंस्कार-संज्ञा पुं० [ सं०] पाकाश के किसी ग्रह के केंद्र का दे० 'लक्षणा'। समीकरण या मंदफल निरूपण। फलवंध्य-संज्ञा पुं० [सं०] न. फलनेवाला वृक्ष । निष्फल वृक्ष वह फलसंस्थ-वि० [सं०] फलोत्पादक । फल' उत्पन्न करने-' वृक्ष जो फल न दे [को०] । वाला [को०] | फलवर्णिका-संज्ञा स्त्री० [सं०] फलों का अवलेह या मुरब्बा । । फलस-संज्ञा पुं० [सं० ] पनस । कटहल (को०] । फलों की जेली [को०] । फलसा-सज्ञा पुं॰ [ देश०] १. दरवाजा । द्वार । २. गांव की सीमा। फलवती-राशा स्त्री० [सं०] प्रियंगु का पौधा (को०] । उ०-जेसो पाणि फलसा कोटड़ी का नै खुलाया। हेलो देर सारा कोटडी का ने जगाया।-शिखर०, पृ० ३८ । फलवर्ति - संज्ञा स्त्री० [सं०, मि० अ० फतील ] मोटी बत्ती जो घाव में रखी जाती है। फलसाधन-संज्ञा पुं० [सं० ] इष्ठप्राप्ति का उपाय या साधेन (को०] । फलसिद्धि-संज्ञा स्त्री० [सं०] फम की प्राप्ति । सफलता [को०] । फलवर्तुल 1-संज्ञा पुं० [सं०] कुम्हड़ा। फलवस्ति-संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का यस्तिकर्म जिसमें • फलस्थापन-संज्ञा पु० [ मं०] फलीकरण या सीमंतोन्नयन नामक संस्कार । अंगूठे के बरावर मोटी पौर बारह घंगुल लंबी पिचकारी विशेष-हिंदुओं के दस प्रकार के संस्कारों में यह तीसरा गुदा में दी जाती है। संस्कार है। फलवान्–वि० [सं० फलवत् ] [वि० सी० फलवती ] फलयुक्त । फलस्नेह-संज्ञा पुं० [सं०] प्रखरोट । फलित । जिसमें फल लगा हो । फलहक संज्ञा पुं॰ [ सं० ] काष्ठफलक । तखता [को॰] । फलविक्रयी--संज्ञा पुं० [सं० फलविक्रयिन् ] फल बेचनेवाला व्यक्ति फलहरी-संज्ञा स्त्री॰ [हिं० फल+हरी ( प्रत्य० ) ] १. वन के या दुकानदार । मेवाफरोश [को०] । वृक्षों के फल । मेवा । वनफल । २. फल | मेवा। जैसे,- फलविप-संज्ञा पुं० [सं०] वह वृक्ष जिसके फल विषले होते हैं।' कुछ फलहरी ले पापो। जैसे, करंभ इत्यादि। फलहरी-वि० [हिं० फलहार + ई (प्रत्य॰)] दे० 'फलहारी' । विशेष-सुश्रुत में कुमुदुनी, टेलुका, करंभ, महाकरंभ, कर्कोटक, फलहार-संबा पु० [हिं०] दे० 'फलाहार' । रेणुक, खद्योतक, धर्मरी, पगंधा, सर्पघाती, नंदन और सर- फलहारी'-वि० [हिं फलहार + ई (प्रत्य०)<सं० फलाहारीय ] पाक के फल विष कहे गए हैं। जिसमें प्रम्न न पड़ा हो अथवा जो अन्न से न बना हो । जैसे, फलवृक्ष-संज्ञा पुं० [सं०] फल का पेड़ [को०] । फलहारी मिठाई, फलहारी जलेबी, फलहारी पूरी । फलवृक्षक-संक्षा पुं० [सं०] कटहल । फलहारी-संज्ञा स्त्री॰ [सं०] कालिका देवी का फलश-संज्ञा पुं॰ [सं०] कटहल (को०] । फलही-संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कपास का पौधा । २. झिल्ली। फलश-संज्ञा पुं० दे० 'फलशाक' । भृगारी [को॰] । फलशाक-संशा पु० [सं०] वह फल जिसकी तरकारी बनाकर खाई फलहीन-वि० [सं०] १. निष्फल । २. फलरहित । जैसे, वृक्ष [को०] । जा सकती हो। फलहेतु-वि० [सं०] फल के लिये काम करनेवाला (को०] । फलशाडव-सज्ञा पुं० [सं०] अनार । दाडिम । फलांत-संज्ञा पुं० [सं० फलान्त ] बांस । फलशाली-वि० [सं० फलशालिन् ] १. फलयुक्त । २. फल देने- ' फलांश-संज्ञा पुं० [सं०] तात्पर्य । सारांश । फलितांश। मसल वाला [को॰] । फलशैशिर-संधा पुं० [सं० ] बेर का पेड़ । फलों-वि० [फा० फ़ला ] अमुक । कोई पनिश्चित । फलश्रुति-संशा स्त्री० [सं०] १. पर्थवाद | यह वाक्य जिसमें किसी फला-संश्चा पुं० लिंग । पुरुद्रिय । फर्म के फल का वर्णन होता है और जिसे सुनकर लोगों की फलॉग-संशा सी० [सं० प्लवन वा प्रलङ्घन ] 1. एक स्थान से वह कर्म करने की प्रवृत्ति होती है। जैसे, अमुक यज्ञ करने -उछलकर दूसरे स्थान पर जाने की क्रिया या उसका भाव । से स्वर्ग की प्राप्ति होती है, दान करने से -प्रक्षय पुण्य हाता कुदान । चौकड़ी। उ०-सुनी सिंह भय मानि प्रवाज । मारि है, पादि । २. ऐसे धाक्य सुनना। फलांग चली वह माज-सूर (शब्द० 1 फलश्रेष्ठ-संशा पुं० [सं०] प्राम। कि प्र०-भरना ।-मारना। - मतलव। .
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/४३
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