पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/२३५

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मूर्ख ३६६४ भू.पराम प्र०, पृ० ३ । (ग) आपुहि मूरुष प्रापुहिं ज्ञानी, सब महं रह्यो रजनी हरिणा-या विशाला समोई।-जग० श०, भा० २, पृ० ६५। उत्तरायणी कपोतनना मोमपी शुदपडजा मूर्ख'-वि॰ [ सं०] वेवकूफ । प्रज्ञ । मूढ । नादान । नासमझ । लठ । शुद्धमध्या विचा मत्सरीतांता मागों अपढ । जाहिल। रोहिणी प्रश्वकाता पीरवी यो०- मूर्खपहित = पठित मूर्ख । पढा लिसा मूर्ख । मूर्खभ्रातृ = सुवा अभिन्ता मंदाकिनी अलापी जिसका भाई मूर्ख हो। मूखमढल = मूसों को टोली या दल मूर्खशत - सैकडो मूख । मूर्छा-मज्ञा स्री० [सं०] १ प्राणी की वह अवस्था जिममे उसे -सञ्ज्ञा पुं० १ उर्द । २ वनमूंग । ३ वह जो अपढ गौर जाहिल किमी बात का ज्ञान नहीं रहता, वह निश्चेष्ट पटा रहता है। हो। सा का लोप । अचेत होना। वेहोगी। उ,-गइ मूळ मूर्खता-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ सं० ] अज्ञता । मूढता । नासमझी। वेवकूफी । तव भूपति जागे। बोलि मुमत कहन अम लागे ।-तुनमी अज्ञानता। (शन्द०)। सूर्खत्व-सञ्ज्ञा पुं० [ स० ] नादानी । नासमझो । बेवकूफी । अज्ञता । क्रि० प्र०-माना ।-साकर गिरना । —होना । सर्खाधिराज-सशा पुं० [ सं० ] महामूर्ख । मूों का राजा । विशप-आयुर्वेद मे मूर्छा रोग के ये कारण कहे गए हैं-विरुद्ध मूर्खिनील -सशा स्त्री० [सं० मूर्ख ] मूढा स्त्री। वेममझ औरत । वस्तु खा जाना, मलमून का वेग रोकना, अन्त्रणस से गिर आदि मर्मस्थानो मे चोट लगना अथवा मत्व गुण का उ०-ल प्रोदन तिय को दिसरायो। कही मूखिनी कहं ते आयो।-रघुराज (शब्द०)। स्वभावत कम होना। इन्ही मव कारणा ने वातादि दोष मनोधिठान में प्रविष्ट होकर अथवा जिन नाडियो द्वारा इद्रिया मर्खिमा-सञ्ज्ञा स्त्री० सं० ] मूर्खता । जडता । वेवकूफी। और मन का व्यापार चलना है उनमे अधिष्ठित होकर, तमोगुण मच्छेन-सञ्ज्ञा पुं० [ स०] १ सज्ञा लोप होना या करना। वेहोश की वृद्धि करके मूर्छा उत्पन करते हैं। करना। २ मूच्छित करने का मत्र या प्रयोग । उ०-ग्राजु ही मूर्छा पान के पहले शथिल्य होता है, जंभाई आती है और राज काज करि आऊं। वेगि महारी सकल घोप शिशु जो मुन्व कभी कभी सिर या हृदय मे पीटा भी जान पड़ती है । प्रायसु पाऊँ । तौ मोहन मूर्छन वशीकरन पढि अमित देह वढाऊं मूर्छा रोग मात प्रकार का कहा गया है-नातज, पित्तज, -सूर (शब्द॰) । ३ पारे का तीसरा मस्कार जिसमे त्र्युषण कफज, मनिपातज, रक्तज, मद्यज और विपज । 'वातज' मूर्चा त्रिफलादि मे सात दिन तक भावना दी जाती है। ४ कामदेव मे रोगो को पहले अाकाश नीला या काला दिखाई पड़ने का एक वारण। लगता है और वह बेहोश हो जाता है, पर थोड़ी ही देर मे मुर्छना- सज्ञा स्त्री॰ [ स० ] संगीत से एक ग्राम से दूसरे ग्राम तक होश या जाता है। इसमे कप और अग मे पीडा भी होती जाने मे सातो स्वरो का आरोह अवरोह । उ० -(क) सुर नाद है और शरीर भी बहुत दुवल और काला हो जाता है। ग्राम नृत्यति सताल । मुख वर्ग विविध पालाप काल । बहु कला 'पित्तज' मूर्चा मे वेहाशी के पहले प्राकाश लाल, पीला जाति मूर्च्छना मानि । बढ भाग गमक गुन चलत जानि । या हरा दिखाई पड़ता है और मूच्छा छूटन समय प्राः लाल -केशव (शब्द॰) । (स) मुर मूर्च्छना ग्राम ल ताला। गावत हो जाती हैं, शरार म गरमी मालूम होती है, प्यास लगती कृष्णचरित सब ग्वाला।-रघुराज (शब्द॰) । है और शरीर पीला पड जाता है । श्लेमज' मूच्या म रागी विशेष-ग्राम के सातवें भाग का नाम मूर्च्छना है । भरत के मत स्वच्छ प्राकाश को भा वादलो से ढका और अर्थरा देखते देखते से गाते समय गले को कंपाने से ही मूर्च्छना होती है, और वेहोश हो जाता है और बहुत देर म हाश मे पाता है । मूळ किसी किसी का मत है कि स्वर के सूक्ष्म विराम को ही मूर्छना टूटते समय शरीर ढाला और भारी मालूम होता है और पेशाव कहते हैं। तीन ग्राम होने के कारण २१ मूर्च्छनाएं होती है तथा वमन की इच्छा होता है । 'सानपातज मे उपर्युक्त तीनो जिनका ब्योरा इस प्रकार है- लक्षण मिले जुल प्रकट होते हैं और मिरगी के रोगी की तरह पहज ग्राम की मध्यम ग्राम की गाधार ग्राम की रोगी जमीन पर अकस्मात् गिर पडता और बहुत देर में ललिता पचमा रौद्री होश मे आता है। मिरगी और मूछी मे भेद केवल इतना मध्यमा मत्सरी ब्राह्मी होता है कि इसमे मुह से फेन नही पाता और दांत नहीं बैठने । चित्रा मृदुमच्या वैष्णवी 'रक्तज' मूर्छा मे अग ठक और दृष्टि स्थिर सी हो जाती है रोहिणी शुद्धा खेदरी और सांस साफ चलती नहीं दिखाई देती। 'मद्यज' मूच्छी मे मतगजा सुरा रोगी हाथ पैर मारता और अनाप शनाप बकता हुआ भूमि सौवीरी कलावती नादावती पर गिर पडता है। 'विपज' मूर्छा मे कप, प्यास और झपकी षड्मध्या तीवा विशाला मालूम होती है तथा जैसा विप हो, उसके अनुसार और भी मन्य मत से मूर्च्छनानो के नाम इस प्रकार हैं- लक्षण देखे जाते हैं। उत्तरमुद्रा सौवीरी नदा मूपिगम-सज्ञा पुं० [ स०] वेहोशी दूर होना (फो०] । प्रता ।