पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/२४२

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स० अन्वेपण। HO स० मुंगकानन ४००१ मृगनाभिजा खोज । ६ कस्तूरी का नाफा। १०. ज्योतिप मे शुक्र की नौ मृगणा-सज्ञा स्त्री। ] १. अपहृत धन की खोज । २ खोज । वीथियो मे से पाठवी वीथी जो अनुराधा, ज्येष्ठा और मूल मे पडती है। ११. पुरुप के चार भेदो मे से एक । मृगतृषा-सज्ञा स्त्री० [सं० मृगतृपा ] दे० 'मृगतृष्णा'। विशेप - मृग जाति का पुरुष मधुरभापा, वडी आँखोवाला, भीरु, मृगतृष्णा सज्ञा स्त्री॰ [ स०] जल वा जल की लहरो की वह मिथ्या चपल, सुदर और तेज चलनेवाला होता है । यह चित्रिणी स्त्री के प्रतीति जो कभी कभी ऊपर मैदानो मे भी कडी धूप पडने के लिये उपयुक्त कहा गया है। समय होती है । मृगमरीचिका । १२ वैष्णवो के तिलक का एक भेद । १३ चद्रमा का लाछन । विशेप-गरमी के दिनो मे जब वायु की तहो का घनत्व उप्रणता चद्रमा मे मृग का चिह्न (को॰) । के कारण असमान होता है, तब पृथ्वी के निकट की वायु मृगकानन-सज्ञा पुं० [ अधिक उप्ण होकर ऊपेर को उठना चाहती है, परतु ऊपर ] १ उद्यान । उपवन । २ याखेटोप- की तहे उसे उठने नहीं देती, इससे उस वायु की लहरें पृथ्वी योगी पशुमा से भरा हुआ बन [को॰] । के समानातर बहने लगती है । यही लहरें दूर से देखने मे जल मृगकेतन-सज्ञा पुं॰ [ स० ] चद्रमा [को०] । को धारा सी दिखाई देती हैं । मृग हमसे प्राय. धोखा खाते हैं, मृगगामिनी-सचा स्त्री॰ [ ] एक प्रौपध । वायविडग (को०] । इससे इमे मृगतृष्णा, मृगजल प्रादि कहते हैं । मृगधर्मज-सञ्ज्ञा पु० [ स०] १ कस्तूरी का नाफा । २ जवादि मृगतृष्णका-सशा स्त्री॰ [ स० ] दे० 'मृगतृष्णा' 1 30-चारो ओर से काट काटकर अपने को अलग करती हुई, श्रीर एकार्की नामक गघद्रव्य। वनकर जिधर भागती हुई चली आई हूँ, वहाँ देखती हूँ रेत, रेत, मृगचर्म -सञ्ज्ञा पु० [ ] मृगछाला । हिरन का चमडा । रेत, केवल मृगतृष्णिका ।-सुखदा. पृ० १३ । विशेप-यह पवित्र माना जाता । इसका व्यवहार उपनयन मृगतृष्ना- सज्ञा स्त्री॰ [ स० मृगतृष्णा ] दे० 'मृगतृप्या' । उ०- सस्कार मे होता है और इसे साधु सन्यासी बिछाते है। मृगतृष्ना सम जग जिय जानी । तुलसी ताहि मत पहिचानी - मृगचर्या-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] मृग की तरह का रह्न सहन जो एक तुलसी ग्र०। प्रकार की तपस्या या प्रात्मनियह है [को०] । मृगदशक-सञ्ज्ञा पुं॰ [सं० ] कुत्ता । मृगचारी-वि० [ स० मृगचारिन् ] मृगचर्या करनेवाला । हिरण की मृगदर्प -सञ्ज्ञा पुं॰ [ स० ] कस्तूरी (को०] । तरह जीवन बितानेवाला [को०] । मृगदाव-सज्ञा पुं० [सं० मृगदाव (= मृगो का वन ) ] १ वह बन मृगचेटक-सज्ञा पु० [ स० गवविलाव । मुश्क विलाव । खट्टास । जिमम बहुत मृग हो। २. काशी के पास 'सारनाथ' नामक मगछाला-सज्ञा स्त्री॰ [ स० मृग+ हिं० छाला ] मृगचर्म । स्थान का प्राचीन नाम । (कहा जाता है कि वहां वन मे मृग मृगछौना- सज्ञा स्त्री० [ सं० मृग + हिं० छौना ] [ सी० मृगछौनी ] स्वच्छद विचरण किया करते थे )। मृगशावक | उ०-प्यारा अक दुरि रही ऐसे, जसे केहरि क्रदन मृगधु-श पुं० [सं० ] शिकारी। मुनि मृगछीनी ।-नद० ग्र, पृ० ३७३ । मृगद्विप-सद्धा पुं० [ ] शेर । सिंह (को०)। मृगजरस-सञ्ज्ञा पुं० स० ] एक रमीपय जिसका व्यवहार रक्तपित्त मृगदृशी-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं० ] हिरन जैसी आँखोवाली स्त्री। मे होता है। मृगष्टि-सञ्चा पुं० [स० ] शेर । वाघ (को०] । मृगधर-सज्ञा पुं० [ विशेप- शोधा हुआ पारा और मृत्तिका लवण (लोनी ) वामे ] चद्रमा । के रस मे एक दिन तक घोटने से यह तैयार होता है। मृगधूम-सज्ञा पु० [ ] एक प्राचीन तीर्थ का नाम । मृगधूर्त- -सा पुं० [स०] शृगाल । मृगजल-सज्ञा स० [सं० ] मृगतृष्णा । मृगतृष्णा की लहरें। उ०- (क) सुधा समुद्र ममीप विहाई। मृगजल निरखि मरहु फत मृगतेक-सज्ञा पुं॰ [ स० ] दे० 'मृगधूर्त' [को०)। धाई । - तुलसी (शब्द०)। (ख ) तृपा जाइ वरु मृगजल मृगनयना-सज्ञा स्त्री॰ [म०] हिरन को प्रांखोवाली स्त्री। पाना । बरु जामहि सस सीस विपाना । —तुलसी (शब्द॰) । मृगनयनि, मृगनयनो-सचा सी० [ स० ] दे० 'मृगनयना' । उ०-- 10-मृगजल स्नान = मृगजल मे नहाना । अनहोनी वात । चद्रवदनि की सी अलकावलि, लहराती थी लोल शवलिनि । कोमल चचल धरणी श्यामल, किसी मृगनयनि की थी गकनि । मृगजा-सचा पुं० [ ] कस्तूरी। -मधुज्वाल, पृ० १७ । मृगजालिका-सज्ञा स्त्री॰ [ स० ] हिरनो को फंसाने का जाल । मृगनाथ -सशा पु० [ स० ] सिंह । मृगजीवन-सशा पुं० [स०] शिकारी । अहेरी [को०] । विशेप- मृग' शब्द के आगे पति, नाथ, राज भादि शब्द लगने मृगज़ भ-सक्षा स्त्री॰ [ स० मृगजृम्भ ] खोए या चोरी गए हुए धन से सिंहवाचक शब्द बनता है। मृगनाभि-सञ्ज्ञा पु० [ सं० ] कस्तूरी। मृगटक-सच्चा पुं० [ से० मृगटक ] चद्रमा । मृगनाभिजा-सशा सी० [सं०] कस्तुरी । th TO स० स० की खोज।