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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/२५५

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मेढासिंगी ४०१४ मेदोज लिये पालते हैं । मादा भेंड जितनी ही सीवी होती है, उतने होता है, तब मेद बनता है । इसके इकट्ठा होने का स्थान उदर ही मेढे क्रोधी होते हैं । मेढे की एक जाति ऐसी होती है जिसकी कहा गया है। पूंछ मे चरबी का इतना अधिक सचय होता है कि वह चक्की २ मोटाई या चरवी वढने का रोग । ३. कस्तूरी। उ०—(क) के पाट की तरह फैलकर चौही हो जाती है। ऐसा मेढा 'दुवा' रचि रचि साजे चदन चीरा । पोते अगर मेद औ गौरा। कहलाता है । विशेष दे० 'भेड' । - जायसी (शब्द॰) । (ख) कहि केशव मेद जवादि मा माजि मेढासिंगी सज्ञा स्त्री॰ [ सं० मेढूशृङ्गी ] प्रौपध के रूप में प्रयुक्त एक इते पर प्रांजे में अजन दै—केशव (शब्द०)। ४ नीलम की झाडीदार लता। एक छाया ।--रत्नपरीक्षा (शब्द०)। ५ एक अत्यज जाति विशेप- यह लता मध्यप्रदेश और दक्षिण के जगलो मे तथा जिसकी उत्पत्ति मनुस्मृति में वैदेहिक पुरुष और निपाद स्त्री से बंबई के अासपास बहुत होती है। इसकी जड औपच के काम कही गई है। पाती है और सर्प का विष दूर करने के लिये प्रसिद्ध है। मेदज-सज्ञा पुं॰ [ सं० ] एक प्रकार का गुग्गुल [को०] । इसकी पत्तियां चबाने से जीभ देर तक सुन्न रहती है । वैद्यक मे मेदनी-सज्ञा मी० [ सं० मेदिनी ? ] यात्रियो का वह दल या गोल यह तिक्त, वातवर्धक, श्वास और कासवर्धक, पाक में रुक्ष, कटु जो झंडा लेकर किसी तीर्थस्थान या देवस्थान को जाता है। तथा व्रण, श्लेष्मा और आँख के दर्द को दूर करनेवाली मानी मेदपाट :-सझा पुं० [सं० ] मेवाड । उ०-शत्रुराजानो के प्रायुष्यरूपी जाती है। इसके फल दीपन तथा कास, कृमि, वरण, विप और पवन का पान करने के लिये चलती हुई कृष्णसर्प जैसी तलवार कुष्ठ को दूर करनेवाले कहे जाते है। के अभियान के कारण मेदपाट ( मेवाड ) के राजा जयतल मेढिया -सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० मढ़ी ] दे० 'मढी' । ( जैनसिंह ) ने हमारे साय मेल न किया ।--राज० इति०, मेढी - सज्ञा स्त्री॰ [ स० वेणी ] १ तीन लडियो मे गूथी हुई चोटी। पृ० ४६० । उ०-लटकन चारु, भृकुटिया टेढी, मेढी सुभग मुदेश सुभाए। मेदपुन्छ-मज्ञा पुं० [ स० ] दुवा मेढा । - तुलसी । (शब्द॰) । २ घोडो के माथे पर की एक भौंरी । मेदसारा-मज्ञा स्त्री० [सं० ] अष्टवर्ग की एक ओपधि । विशेष मेढ़ ह-सज्ञा पुं० [सं०] १ शिश्न । लिंग । २ मेढा । द० 'मेदा'। यौ०-मेढूज = शिव का एक नाम । मेश गी = दे० 'मेढासिंगी। मेदस्वी-वि० [सं० मेदस्विन् ] १ स्थूल । मोटा। अधिक चरवी- मेथि'–सना पुं० [सं०] १. दे० 'जुमाठा' । २ दे० 'मेघि' (को॰] । वाला । २ ताकतवर (को०] । मेथि–सझा सी० दे० 'मेथी' [को०] । मेदा-सचा स्त्री॰ [ ] ज्वर और राजयक्ष्मा मे अत्यत उपकारी मेथिका, मेथिनी-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ स० ] मेथी। अष्टवर्ग मे एक प्रसिद्ध अोपधि । मेथी-सज्ञा स्त्री॰ [ सं० ] मसाले और प्रोषध में काम आनेव ला । एक विशेष-कहते हैं, इसकी जड अदरक की तरह पर बहुत सफेद बहुप्रसिद्ध छोटा पौधा और उसका फल । होती है और नाखून गडाने से उसमें से मेद के समान दूध विशेष-भारतवर्ष मे इसका पौवा प्राय सर्वत्र पाया जाता है । निकलता है। वैद्यक मे यह मधुर, शीतल तया पित्त, दाह, इसकी पत्तियां कुछ गोल होती हैं और साग की तरह खांसी, ज्वर और राजयक्ष्मा को दूर करनेवाली कही गई है। खाई जाती हैं। इसकी फलिगे के दाने मसाले और औषध के यह मोरग की ओर पाई जाती है। काम मे पाते हैं और देखने में कुछ चौखूटे होते हैं । इसकी मेदा-सज्ञा पुं० [अ० ] पाकाशय । पेट । कोठा । जैसे, मैदे की फसल जाडे मे तैयार होती है। वैद्यक में इसका गुण कटु, शिकायत। उष्ण, अरुचिनाशक, दीप्तिकारक, वातघ्न तथा रक्तपित्त प्रकोपन मुहा०- मेदा कडा होना= प्रांतो की क्रिया इस प्रकार की होना माना गया है। कि जल्दी दस्त न हो। पर्या० दीपनी । बहुमूनिका । गधबीना। ज्योति । गधकला। मेदिनी -सञ्ज्ञा स्त्री० [सं०] १ पृथ्वी । धरती । वल्लरी। चद्रिका | म था । मिश्रपुष्पा । कैरवी । वहुपर्णी । पीतवीजा । विशेष-पुराणो मे मधुकैटभ के भेद से पृथ्वी की उत्पत्ति कही गई है, इसी से पृथिवी का यह नाम पड़ा है। मेथौरी-तशा स्त्री० [हिं० मेथी+ वरी ] मेथी का साग मिलाकर २ मेदा । ३ स्थान । जगह (को०)। ४ एक संस्कृत कोश का बनाई हुई उर्द की पीठी की वरी । नाम (को०)। मेंद –समा पुं० [म० मेदस् , मेद] १ शरीर के अंदर की वसा नामक यौ० - मेदिनीज = मगलग्रह । मेदिनीद्रव = धूलि । मेदिनीधर = धातु । चरवा। शैल । पर्वत । मेदिनीपति = राजा। विशेष-सुश्रु त के अनुसार मेद मास मे उत्पन्न घातु है जिससे मेदुर-वि० [सं०] १ चिकना । स्निग्ध । २ मोटा । स्यूल (को०) । अस्थि बनती है । भावप्रकाश आदि वैद्यक ग्रथो में लिखा है कि ३ भरा हुआ । प्राच्छन्न (को०) । जब शरीर के अदर की स्वाभाविक अग्नि से मास का परिपाक मेदोज-सञ्ज्ञा पुं० [ स० ] हड्डी । अस्थि । 80