पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/२५७

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मेमोरेंडम आफ ऐशोसिएशन ४०१६ मेमोरेंडम आफ ऐशोसिएशन-सज्ञा पुं० [अ० ] किसी ज्वाइट मेरठी-सज्ञा पुं० [हिं० मेरठ नगर से ] गन्ने की एक जाति जो मेरठ स्टाक कपनी या समिलित पूंजी से खुलनेवाली कपनी की की ओर होती है। उद्देश्यपत्रिका जिसमे उस कपनी का नाम और उद्देश्य आदि मेरवन - सा स्त्री॰ [हिं० मेरवना ] मिलाने की क्रिया या भाव । लिखे होते हैं और अत में हिस्सेदारो के हस्ताक्षर होते हैं । मिलान । सरकार मे इसकी रजिस्ट्री हो जाने पर कपनी का कानूनी मेरवना-क्रि० स० [ स० मेलन] १ दो या कई वस्तुओ को एक अस्तित्व हो जाता है । उद्देश्यपत्रिका । में करना । मिश्रित करना । मिलाना । उ० ते मेरए धरि धूरि मेय-वि० [सं०] १ जिसकी नाप जोख हो सके । जिसका परिमाण सुजोधन जे चलते वह छत्र की छाहो।-तुलनी ( शब्द०)। या विस्तार ठीक बताया जा सके । २ जो नापा जोखा जान २ दो या कई व्यक्तियों को एक साथ करना । सयोग करना। वाला हो। मिलाप करना उ०--(क) चतुरवेद हौं पडित हीरामन मोहि मेयना-क्रि० स० [म० मेदन हिं० मेयन( = मोयन)] पकवान आदि नाऊँ। पद्मावत सौ मेरवी सेव करी तेहि ठाउँ।-जायसी मे मोयन डालना । मोयन देना । (शब्द॰) । (ख) है मोहि पास मिलक जो मेरव करतार | मेयर–सज्ञा पुं० [अ० ] म्युनिसिपल कारपोरेशन का प्रधान । जैसे, जायसी (शब्द )। (ग) श्री बिनती पडितन मन भजा | टूट कलकत्ता कारपोरेशन के मेयर । संवारहु, मेरवहु सजा |-जायसी ग्र०, पृ०६ । मेखनि-मज्ञा स्त्री० [हिं० मेखना ] दे॰ 'मेखन' । उ.-सुदर विशेष—इंगलैंड में म्युनिसिपलटियो के प्रधान मेयर कहलाते है। श्यामल अग वसन पीत मुरग कटि निपग परिकर मेरवनि । ये अपने नगरो की म्युनिसिपलटियो के प्रधान होने के सिवा वहाँ के प्रधान मैजिस्ट्रेट भी होते हैं। लडन तथा और कई मेरा' -सर्व० [हिं० मै+रा (प्रा० केरियो, हिं० केरा)। [म्मी० मेरी] -तुलसी (शब्द०)। नगरो की म्युनिसिपलटियो के प्रधान लार्ड मेयर कहलाते 'मैं' के सवधकारक का रूप । मुझमे सबध रखनेवाला । मदीय । हैं। हिंदुस्तान में कारपोरेशन के प्रधान मेयर कहलाते हैं । मम । जैसे,—यह घोडा मेरा है । उ०—मेरहुँ जेट्ट गरिछ अछ इनका केवल म्युनिसिपल प्रबध से ही सबध है । ईस्ट इडिया मति विभक्खन भाए।-कीर्ति०, पृ० २० । कपनी के समय सन् १७२६ ई० में भारत मे, कलकत्ता, वंबई और मद्रास में, विचारकार्य के लिये मेयर कोर्ट स्थापित मेरा-मशा पुं० [सं० मेला] दे० 'मेला' । उ०-- यह ससार सुवन किए गए थे। जस मेरा । अत न आपन को केहि केरा । —जायसी (शब्द॰) । यह ऐतिहासिक तथ्य है परतु स्वतत्रता प्राप्ति के बाद भारतवर्ष के अन्य बड़े नगरो मे भी कारपोरेशान मेराउ- -सज्ञा पुं० [हिं० मेर (= मेल) ] दे० 'मेराव' । उ०-धनि या महापालिकाएं बनाई गई हैं। उन सबके प्रधान को मेयर या मोहि जीव दीन्ह विधि भाऊ । दहं का सउ लेइ करइ मेराऊ । - जायसी (शब्द०)। अध्यक्ष कहते हैं । इनका निर्वाचन कार्पोरेपान के सभासदो द्वारा किया जाता है। मेराज-सचा सी० [अ० मेराज ] सीढी । ऊपर चढने का साधन । - रूह कर मेराज कुफर का खोलि कुलाबा । तीसो रोजा मेयान -सज्ञा पुं० [फा० मियान ] दे० म्यान' । उ०—कहाँ ग्यान रहै अदर मे सात टिकावा । - पलटू, पृ० ४३ । का पयान, कहां मेयान का मुसकला 1- रामानद०, पृ० ३२ । मेये--सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ स० बॅग कन्या । बेटी । पुत्री । —जावी मेराना-क्रि० स० [हिं० ] ३० 'मिलाना' । उ०—(क) सो बसीठ मेये तो बेश सुदरी।--भस्मावत, पृ० ७२ । सरजा लेइ आषा। बादमाह कह पानि मेरावा ।-जायसी (शब्द०)। (ख) कपूर लाइचो मोरया वामे पूजा यही हमारा । मेर@-सचा पुं० [सं० मेल] दे० 'मेल' । उ० - (क) एहि सो कृष्ण जग० बानी, पृ० १। बलराज जस कीन्ह चहै छर बांध । मन विचार हम प्रायही मेराव-शा पुं० [हिं० मेर (= मेल )] मेल । मिलाप । समागम । मेरहि दीज न काँध ।—जायसी । (शब्द०)। (ख) गएउ उ०—पदुमावति पुनि पूजइ आवा। होइहि प्रोहि मिसु दिस्ट हेराइ गो प्रोहि भा मेरा । —जायसी ग्र०, पृ० ६२ । (ग) मेरावा ।—जायसी (शद०)। अपने अपने मेरनि मानो उनि होरी हरख लगाई ।-सूर मेरी–सर्व० [हिं० ] 'मेरा' का स्त्री० रूप । (शब्द०)। मेरी २--सञ्ज्ञा सी० अहकार । उ०- मेरी मिटी मुक्ता भया पाया ब्रह्म मेर-सञ्ज्ञा पुं० [सं० मेरु ] दे० 'मेरु' । उ०—सुदर हय हीसे जहाँ विस्वास । मेरे दूजा कोउ नही एक तुम्हारी आस ।-कबीर गय गाजे चहुं फेर । काइर भाग सटक दे सुर अडिग ज्यो (शब्द०)। मेर 1-सुदर० ग्र०, भा०२, पृ० ७३९ । मेरु-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] १ एक पुराणोक्त पर्वत जो सोने का कहा यौ०-मेरडड = दे० 'मेरुद:' । उ०-थर मन मेरडह चढ़ गया है। विशेप दे० 'सुमेरु' । तारी। -घट०, पृ० ३१ । पर्या०-हेमाद्रि । रत्नसानु । सुरालय । मेरा--सज्ञा पुं॰ [देश॰] पर्वतीय जातिविशेष । एक लडाकू पर्वतवासी २ जपमाला के बीच का वडा दाना जो और सव दानो के ऊपर जाति । उ०- जहं पब्जय घाटो हुतौ मीना मेर मवास ।- होता है। इसी से जप का प्रारभ और इसी पर उसकी समाप्ति पृ० रा०, ७७६ । होती है। सुमेरु । ( जप करते समय 'मेरु' का उल्लघन नही मेरक-तज्ञा पु० [ स० ] एक असुर जिसे विष्णु ने मारा था । करना चाहिए।) उ०--कविरा माला काठ की बहुत जतन उ०-