पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/३४५

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रगरा ४१०४ रचना o 10 FO रगरा-सशा पुं० [हिं० रगडा] दे० 'रगडा'। है। जैने,---रघुकुल्चद्र, रमनाणि, रघुनार, रघुपति, रगरेशा 1-सज्ञा पुं० [फा० रग+रेशा] १ पत्तियो की नसें । २ रघुवर रघुवीर उन्यादि। शरीर के अंदर का प्रत्येक अग । रघुनद-T पुं० [ म० रघुनन्द ] श्रीरामचद्र। मुहा०-ग रेशे में = सारे शरीर मे । अग अग मे। रंगरंग मे रघुनदन-11 पु० घुगन्धन ] श्रीरामचद्र। परिचित या वाकिफ होना = स्वभाव और व्यवहार प्रादि में रघुनाथ- । ए० [ 10 ] भीगमनद्र । परिचित होना । अच्छी तरह जानना । तूर पहनानना । ३ किमी विषय की भीतरी और सूक्ष्म गते । ग्घुरायक-1 [ ] र स्वामी, प्रोगमचद्र। रघुपनि-7.1 [ ] रघुपात मामी, पौसमचद्र। रगवाना-क्रि० स० [हिं० २गना का प्रर० प] चुप काना । शात कराना । उ०-कुवर कहूं रोदन अति करही नहीं गा रघुराई पा-सहा न० [i• •धु ।न, प्रा. ग्घु । श्रीगमबद्र । रगवावै ।-रघुराज (सन्द०)। ग्घुराज-1 [ ] नागना, श्री बद्र। रगा -सञ्ज्ञा पु० [देश॰] मोर । ग्घुगया--- 1. [ 10 • युगान रघुपम गजा । श्रीरामचद्र । रगाना-मि० अ० [१०] चुप होना । शात होना । रघर या 9-4 पुं० [70 रघुनाय | दे० 'रघुगव' । रगाना-क्रि० स० चुप कराना । शात करना । रघुना-० [३०] १ महागनर 77 या सादान निसम रगी-सज्ञा सी० [ देश०] १ एक प्रकार का मोटा अन्न जो नगन गन -ए । उ०प्रमगर न जन हे नारा। मैमूर मे होता है । २ ३० 'रग्गी' । -- जोन -ती (ग-द०)। २ महारवि रगी-मग पुं० [हिं० रग+ ई (प्रत्य॰)] दे० 'रंगीला' । सानिमारा ना नाय प्रमिद नहाता य जिममे महारात रंगीला-सशा पु० [हिं० रग (= जिद)+ला (प्रत्य॰) [ सी० दिलीप समय रे नगर निका विवरण दिया हुपा है । रगीली ] १ हठी । जिद्दी । दुराग्रही। २ पाजी । दुष्ट । यो०- रघुवंश चनज चन-भान = पुनम पी मल वन के सूर्य, रगद- सज्ञा स्त्री० [हिं० रगेदना] १ दौडाने या भगाने की क्रिया । वो रामनद्र । ३० - जय मग-पनज-वन नानू --मानस १ । २ पक्षियो आदि की सभोग की प्रवृत्ति या अवमर । जोग रघुवशफुमार- पु. [ 10 ] श्रारामचद्र। खाने का मौका । रगेदना-वि० [सं० खेट, हिं० सेदना] भगाना । खदेडना । निकालना। रघुवशी-सरा ० [२० रघुबगिन् ] १ वह जो रघु के वश में दौडाना । उपन मा हो । २ पिया के अतर्गत एक जाति । सयो० क्रि०-देना। विशेप - म जाति के लोग महाराज पु पोर गमचद्र के वग मजवन माने जाते हैं। रग्गा-सञ्ज्ञा पुं॰ [ देश०] एक प्रकार का मोटा अन्न जो दक्षिण के पहाडो मे होता है। रगो । रघुवर- मरा पुं० [सं०] र मुकुनथ ठ, श्रीरामचन्द्र । रग्गा-सज्ञा सी० अधिक वर्षा के उपरात होनेवाली धूप, जो गेती रघुवीर-1 पुं० [ ] रघुकुन में वीर, रामचंद्र जी। के लिये लाभदायक होती है । रचूनम-सा पुं० [ 10 ] रघुकुल मे घेष्ठ वा उत्तम, श्रीरामचद्र । रग्गी-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [देश॰] दे॰ 'रगा। रघुबह-731 पुं० [सं० ] रघुवाशयो में थे, श्रीरामचद्र । रघु-सज्ञा पुं॰ [ स०] १ मूर्यवशी राजा दिलीप के पुश का नाम रवती-सग पु० [डि० ] सताप । न । जो उनकी पत्नी सुदक्षिणा के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। रचक'-मज्ञा पुं० [सं०] रचना करनवाला । रचयिता । उ०- विशेप-ये अयोध्या के बहुत प्रतापी राजा और श्री गमचद्र पालक महारक रचक भक्षक पक्ष असार । सब ही सवको होत के परदादा थे। जब ये छोटे थे, तभी इनके पिता ने अश्वमेव र को जाने के पार ।-शर (शब्द॰) । यज्ञ किया था और यज्ञ के घोडे की रक्षा का भार इन्हे नापा रचक'---वि[० न्यञ्चक ] दे० 'रचक' । था। जव उस घोडे को इद्र ने पकडा, तब इन्होने इद्र को रचना'-मरा सी० [सं०] १ रचने या बनाने की क्रिया या युद्ध मे पराजित करके वह घोडा छुडाया था। सिंहासन पर भाव । उनायट । निर्माण । उ०—(क) गवरचना वस्नी भलफ बैठन के उपरात इन्होने विश्वजित् नामक यज्ञ किया था और उसमे समग्र कोप दान कर दिया था। महाराज प्रज इन्ही के चितवन भौंह कमान । - विहारी (जब्द०)। (ग्व) चलो, रग- नूमि की रचना देस भावे । तल्लूलाल (शब्द॰) । २ वनाने पुत्र ये । प्रसिद्ध रघुवश के मूल पुरुप यही थे। का ढग या कौशल । ३ बनाई हुई वस्तु । रची हुई चीज । २ रघु के वश मे उत्पन्न कोई व्यक्ति। सजिन पदार्थ । निभिन वस्तु । उ० (क) अद्भुत रचना विधि रघु'–वि० १ शीघ्रगति । द्रुतगति । शीघ्रगामी । २ चपल । ३ रची यामे नही विवाद । विना जीभ के लेत हग रूप सलोनो चचल । लोल । ४ उत्सुक । भातुर । व्यग्र । अधीर [को०] । स्वाद । --रमनिधि (शब्द०)। (ब) तब श्रीकृष्ण चद्र जी ने रघुकुल-सज्ञा पुं० [ स०] राजा रघु का वश । सबका मोहित फर जो वैकुठ का रचना रची थी, सो उठा विशष-इस शब्द मे चद्र, मणि, नाथ, पनि, वर, वीर, आदि ली। लल्लूलाल (शब्द०)। ४ फूलो से माला या गुच्छे मादि और उनके वाचक शब्द लगने से श्रीरामचद्र का बोध होता वनाना । ५ वाल गूंथना । केश विन्यास । ६ स्थापित करना । १०