पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 8.djvu/४५७

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रोना ४२१६ रोमक 1 रोना-वि० [ वि०सी० रोनी ] १ थोडी सी बात पर भी दुख किया हुया । ५ लक्ष्य या निशाने पर साधा हुा । जैसे, माननेवाला । रोनेवाला। जैसे,—वह रोना आदमी है, उससे वाण (को०)। मत बोलो। २ बात बात मे बुरा माननेवाला। चिडचिडा। रोब-सज्ञा पुं० [प्र. रश्रव] [२० रोगीला ] वडप्पन की घाक । ३ रोनेवाले का सा । मुहर्रमी । रोवाँसा । जैसे,-रोनी सूरत । प्रातक | प्रभाव । दवदवा । तेज | प्रताप । गेनीधोनी-वि० स्त्री० [हिं० रोना घोमा ] रोने धोनेवाली। शोक यौ०- रोयदार । रोचदार । या दु ख की चेष्टा बनाए रखनेवाली । मुहर्रमी। मुहा०-रोन जाना = प्रढप्पन को वाक पैदा करना । पातक रोनीधोनी-सञ्ज्ञा स्त्री० रोने धोने की वृत्ति । शोक या दु ख की उत्पन्न करना। रोन मिट्टी मे मिल्ना = बडप्पन की धाक न चेष्टा । मनहूसो। जैसे,-रोनीधोनी पीये जा, हंसनी खेलनी रह जाना। प्रभाव नष्ट होना । रोग दिखलाना = बडप्पन का प्रागे पा । (स्त्रियां)। प्रभाव डालना। प्रातक उत्पन्न करनेवाली चेष्टा प्रकट करना। विशेष-स्त्रियाँ बच्चो को नहलाते समय उनका अग पोछनी गेर में पाना = (१) प्रातक के कारण कोई ऐमी बात कर हुई उक्त वाक्य कहा करती है। दालना जो यो न की जाती हो। दवदवे मे पड जाना। रोप'-रज्ञा पुं० [ सं०] १ ठहराव । रुकावट । २ मोहन | बुद्धि वडप्पन की चेष्टा देख प्रभावित होना । (२) भय मानना । फेरना । ३ छेद । सूराख । ४ रोपना । पौने श्रादि लगाने को रोवनाव-मज्ञा पुं० [7 ] पातक । दवदना । प्रभाव । क्रिया । रोपण (को०) । ५ वाण । तीर । रोबदार-वि० [अ० ] जिगली चेष्टा से तेज और प्रताप प्रकट हो । यौ०-रोपशिखी = वाणाग्नि । वाण से उत्पन्न अग्नि । रोष दाववाला । भकीला । प्रभावशाली। नेजस्वी । रोप २-सक्षा पुं० [ देश० ] हल की एफ लकडी जो हरिस के छोर पर रोमथ- पुं० [ स० रोमन्थ ] १ मीगवाले चौपायो फा निगले जधे के पार लगी रहती है। हुए चारे को फिर मे मुह मे लाकर धीरे धीरे चबाना । रोपक-वि० [ स०] १ स्थापित करनेवाला । उठानेवाला । २ स्थित जुगाली। पागुर । २ लगातार दोहराना। अनवरत भावृत्ति करनेवाला। ३ जमानेवाला। लगानेवाला। ४ सोने चांदी (को०)। की एक तौल या मान जो सुवर्ण का ७०वां भाग होता है। रोमथन-सज्ञा पुं॰ [ स० रोमन्थन ] दे० 'रोमध' । उ०—स्वर्णाचला रोपण-सचा पुं० [सं०] [वि॰ रोपित, रोप्य ] १ ऊपर रखना अहा खेतो में उतरी मंव्या श्याम परी। रोमथन करती गाएं या स्थापित करना । २ लगाना। जमाना । बैठाना (वीज श्रा रहीं गैंदती घास हरी।-रेणुका, पृ० । या पौधा)। ३ स्थापित करना। खडा करना। उठाना रोम-सज्ञा पुं० [सं० रोमन् ] १. देह के वाल । रोयां । लोम | (दीवार आदि)। ४ मोहित करना। मोहन । ५ विचारो यौ-रोमराजी । रोमावली । रोमलता । में गडवडी डालना। बुद्धि फेरना । ६ घाव का सूखना या मुहा०-रोम रोम में = गरीर भर में । रोम रोम में रमना = उसपर पपडी बंधना। ७ घाव पर किसी प्रकार का लेप भीतर वाहर सर्वत्र व्यात होना। उ०—कबीर प्याला प्रेम लगाना । ८ तीर । वाण (को॰) । का अतर लिया लगाय । रोम रोम मे रमि रहा, मौर रोपना-क्रि० स० [सं० रोपण] १ जमाना । लगाना । बैठाना । २ अमल क्या खाय ।-कवीर सा० सं०, पृ. पौधे को एक स्थान से उखाडकर दूसरे स्थान पर जमाना । पौधा रोम रोम से = तन मन से। पूर्ण हृदय से । जमे,-रोम रोम जमीन मे गाडना। ३ अडाना। ठहराना । स्थापित करना। से पाशीर्वाद देना। दृढता के साथ रखना । उ०-बीच सभा मंगद पद रोप्यो, २ मन । कर्ण। उ०-दामी दास वागि वास रोम पाट को टरघो न, निसिचर हारे । —सूर (शब्द०)। ४ बीज रखना। कियो। दायजो विदेह राज भांति भांति को कियो। केशव बोना । जैसे,—बीज रोपना। ५ कोई वस्तु लेने के लिये (शब्द०)। ३ चिहियो का पर । पख (को॰) । हथेली या कोई बरतन सामने करना । ४ मछलियो का वल्क या शल्क (को०)। ५ एक जनपद का मुहा०-हाथ रोपना = मांगने के लिये हाथ फैलाना । नाम । दे० 'रोमक'। मयो० क्रि०-देना ।—लेना। रोम-सचा पुं० [सं०] १ वेद । छिद्र । सूराख । २ जल । पानी। रोपना पुर–क्रि० स० [हिं० रोक ] दे० 'रोकना' । उ०-राजहिं यौ-रोमनिलय = चमडा जिसके छेद से रोए निकलते हैं । तहां गएउ लेइ कालू । होइ सामृहं रोपा देवपालू ।-जायमी रोमकद-सशा पु० [सं० रोगपन्द] वह कद जिममें रोए' हो । पिंडालू (शब्द०)। [को०] । रोपनी-सज्ञा स्त्री० [हिं० शेपना ] रोपने का काम । घान आदि रोमक'-सज्ञा पुं० [सं०] १ सांभर झील का नमक । साकभरी के पौधे को गाडने का काम । रोपाई। जंगे,-माजकल लवण । पाशु लवण । २ एक प्रकार का चुत्रक (को॰) । रोपनी हो रही है । रोमक-सज्ञा पुं० १ रोम नगर का वासी। रोम देश का मनुष्य । रोपित-वि० [सं०] १ लगाया हुआ | जमाया हुआ । २ स्थापित । रोमन । २ रोम नगर या देश। ३ ज्योतिप सिद्धात का रखा हुधा । ३, मोहित । भ्रात। ४. उठाया हुआ। खडा एक भेद ।