पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/३१५

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या। ब्रज- अपुष्टाके न हो। अपीव अपीव -वि० [स० अपैय] १. पेय जी दुर्लभ हो । अमृत । उ०- अपुरुपसला पु० नपुंसक । हिजडा [2] । उ रटत पवन अनुटत वाणी अपीव पीबत जे ब्रह्मज्ञानी । अपुष्कल-वि० [सं०] १ बहुत नही। थोडा । २. तुच्छ। निम्न। गोरख०, पृ० ३२ । २ ने पीने योग्य । अपेय । उ०--ह्व है क्षुद्र (को॰] । अधिक अपव जीव, कोउ नीर न छवे हैं ।--दीन ० ग्र०, अपुष्ट—वि० [सं०] १ जिसका ठीक ढंग से पोपी न हल्ला हो । जो पृ० २०२। हट्टा कट्टा न हो । दुबला पतन । २ दुर्वन्न । मद । क्षीण। ३ असमर्थ । कमजोर । ४ एक अर्थदीप जिनमे व्यंग्य या अर्थ अपु -सर्व० [हिं० प्राप] १ श्राप । स्वय । १ • आपस मे । स्पष्ट न हो कि०] । उ०-रचि महाभारत कहू लावत अपु मे मैया भैया।-ब्रज- अपुष्टान्न-सज्ञा पुं० [स० अपुष्ट + अन्न] १ वह अन्न वा खाद्य जो वल- माधुरी०, पृ० ३६६ ।। अपुच्छ--वि० [सं०] पुच्छरहित । विना पूछ का [को०] । अपुष्प-वि० [सं०] पुग्यहीन । न फूलनेवाला [को०) । अपुच्छा--सज्ञा स्त्री॰ [स०] शिशपा वृक्ष । शीशम का पेड [को०] । अपुष्प--सझा पु० गूलर का वृक्ष [को॰] । अपुटुना —क्रि० अ० [हिं०] दे॰ 'अपूठना । अपुष्पफल-वि० [स०] बिना पुष्पित हुए फन देनेवाला। बिना फूल अपुण्य-संज्ञा पुं० [स] पुण्य का अभाव । पाप [को०] । फल का [को॰] ।। अपुण्य--वि० जो पुण्य या पावन न हो । कलुपित [को॰] । अपुष्पफल’---सच्चा पुं० १ कटहल । २ गूलर [को०] । अपुत्र---वि० [स०] जिसके पुत्र न हो । नि सतान । पुत्रहीन । निपूता। अपुष्पफलद---वि० संज्ञा पुं॰ [सं०] २० 'अपुष्पफन' (को०] । अपुत्रक---वि० [स०] दे॰ 'अपुत्र' को०] । अपूजक--वि० [सं०]पूजन न करनेवाला । भक्तिहीन । प्रधामिकच्चे-]] अपुत्रिक---सज्ञा पुं० [सं०] ऐसी पुत्रहीना कन्या का पिता जो स्वय । को पिता जो स्वयं अपूजा----सज्ञा स्त्री० [सं०] १ अधामिकता । २ प्रभमान । अनादर । पुत्रहीन होते हुए भी कन्या को उत्तराधिकारी नहीं बना अपूजित--वि० [स०] जिसकी पूजा अर्चना न की जाती हो [को०] । सकता [को०] । अपूज्य-वि० [स०]पूजा या समान के अयोग्य । उ०--अह्महि भाप अपुत्रिका-सज्ञा स्त्री० [स०] पुत्रहीन पिता की वह कन्या जो स्वयं भी दियो तव जानी। होहि अपूज्य केहि अादि भवानी ।वीर पुत्रहीना हो को०] । सा० १० २३ । अपुत्रीय---वि० [सं०] दे॰ 'अपुत्रक' [को०] । अपूठना -क्रि० स० [म० = नहीं + पृष्ठ, पा० पुट्ठ=पीठ अथवा अपुन:--सर्व० [हिं०] दे॰ 'अपना' । उ०—'जी हरि व्रत निज देश॰] १ विदारण करना। विध्वम करना । नाश करना। उर न घरैगो । ती को अस त्राता जो अपुन करि, कर कुठाँव २ उलटना पलटना ।--जननी ही रघुनाथ पठायो । पकरेगो मूर०, १.७५ । । । । रामचंद्र अाए की तुमको देन वघाई अायो । रावन हति से अपुनपो)---संज्ञा पुं० [हिं०] दे॰ 'अपनपी' । चलों साथ ही लका घरौं अपूठी । यात जिय सकुचात नाय की अपुनपौ –नज्ञा पुं० [हिं॰] दे॰ 'अपनपी' । उ०—बाको मारि अपु- होइ प्रतिज्ञा झठी सुर०, ९८७ । नप राखे, सूर व्रजहि हो जाई । सूर5) '१०॥६०) । अपूठा'--वि० [सं० अपुष्ट प्रा० प्रपुट्ठ] [स्त्री० अनूठी ]अपरिपक्व । अपुनरादान-सज्ञा पुं० [म०] वह जो पुन ग्रहण न किया जाय [को०]।। अजानकार । अनभिज्ञ ।' उ--नुम तो अपने ही मुख झूठे । अपुनरावर्तन—संज्ञा पुं० [सं०] पुनरावर्तन का अभाव । मुक्ति । मोक्ष । निर्गुण छवि हरि विनु को पावै य गुरी अँगूठे। निकट अपुनरावृत्ति-सज्ञा स्त्री० [स०] १ पुनरावृत्ति का अभाव । मोक्ष' । रहत पुनि दूर बतावत हौ रस माहि अपूठे --सूर (शय्द०)। निवरण । २ सृत्यु [को०] । अपूठा’---[स० अस्फुट, प्रा० अकुट] अविकसित । देखिला । बैधा। । उ०—-परमारथ पाको रतन, कवडू न दीजै पीठ। स्वारय 'पुनर्भव–सज्ञा पु० [स ०] १ फिर जन्म नं ग्रहण करना। मोक्ष । " सेमल फन है, कल अपठी पीठ |--कवीर (शब्द॰) । निर्वाण । उ०-अच्छा होता, यदि यो होता। परं, वह गत तो अपठा --क्रि० वि० [सं० आ+पष्ठ, प्रा० पुट्ठ, अपिठ्।' है अपुनर्भव प्रपलक, पृ० ८ । २ ( रोगादि का ) फिर पीछे। पीठ की ओर । उलटे। उ--गग अपूठी क्यू बहुइ == | न होना । । । वी० रासो, पृ० ६० । २ वापस राजि अनूठा वाहुडउ, माल अपुनीत–वि० [सं०] १ जो पुनीत न हो।' अपवित्र 1 अशुद्ध । वणी मूई १–ढोला०, दु: ४०४ । उ०—सुरमरि कोउ अपुनीत न कहई।--मानस, १५६६ । २ अपूठी--वि० [सं० प्रपृष्ट प्रा० अपुट्ठि] बिना पूछे । बिना दांत इपित । दोपयुक्त 1 . | , के। विना सवाल किए,। उ०—जेठी घी के गले, छुरी है। बहू अपूव्व -वि० [स० अपूर्व] अद्भुत । वेजोड । उ०—सुनि सुदरबर | अपूठी चाली ।---सुदर ग्र०, पृ० ८२९ । । बज्ने अई अपुत्र कोइ दिट्ट ।--पृ० रा०, ६१५११४७ । अपूत--वि० [स०] अपवित्र । अशुद्ध । । अपुराण-वि० [सं०] १ पुराना नही । अाधुनिक । नया कौ] । अपूत --वि० [स० अ = नहीं +पुत्र, प्रा० पुत] पुत्रहीन । निमूत अपुरुब ----वि० [हिं०] दे० 'अपूर्व उ०-बहुरि क बर जो पाछे अपूत --सझा पु० [सं० अ = बुरा+पुत्र, प्रा० पुत्त] कुपूत । बु । देखा, पुन्य रूप वित्र एक पेखा -चित्रा०, पृ० ३३ । लडका। उ०—तोसे सपूतहि जाइकै बालि अपूतन की पदवी अपुरुष–वि० [स०], अमानवीय । अमानुषिक (को०) । । । पशु घारे ।---राम २०, पृ० ११४ । । ।