पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/३७६

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अर ३०७ अॅरेमनी । अरटु-संज्ञा पुं० [सं०] अर नाम का वृक्ष (को॰] । ध्यान न दे। वह बात जिसका कोई ग्राहक न हो । अरडीग--वि॰ [देश०] वनिप्छ । जोरावर --डि० । जैसे-इम,भीडभाड मे कोई बात कहना अरण्यरोदन है । अरण- संज्ञा पुं० [हिं०] दे॰ 'अरण्य' । उ०-~~-अरण शाज्ञाकारी (शब्द॰) । मूझ नायक अवध अवव विताने बेग प्राव ।- रघु० ७०, अरण्यवास्तुक-संज्ञा पुं० [सं०] जंगली बँन [को०] । पृ० १०४ । अरण्यवास्तुकसज्ञा पुं० [म ०] दे० 'अरण्यवास्तुक' [v] । अरवि -मृज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अर्णव' । उ०—अरणव साते उदर अरण्यविलाप– संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अरण्यरोदन' कि । | विरछ रोमाच विधार्ने ।-रघु० रू०, पृ० ४४ । अरण्यव्रत--सज्ञा पुं० [सं०] एक वैन जो मृगशिरा नक्षत्र के वारहवें अरणि--सनी ली० [नं०] १ प्रकार का वृक्ष । गनियार। अँगे यू । | दिन पडता है [को०] । || २ सयं । ३ काठ का वना हुअा एक यत्र जो यज्ञों में आग अरण्यवान-सी पुं० [सं०] १ भेडिं। २ गीदड़ [को०] । निकालने के काम आता है । अग्निमथ ।। अरण्यपष्टी--सज्ञा पुं० [सं०] एक व्रत जो जेठ महीने के शुक्ल पक्ष में पढता है । विशेष---इसके दो भाग होते हैं--पारणि या अधरारणि और विशेष----इस दिन स्त्रियाँ फलाहार करती हैं और देवी की पूजा उतरारणि । यह शमीगर्भ अश्वत्य से वनाया जाता है । श्रध- करती हैं यह व्रत सतानवर्धक माना जाता है। शास्त्रानुसार रारणि नीचे होती है और इसमें एक छेद होता है । इस छेद स्त्रियो को देना लेकर जगल मे घूमना चाहिए। पर उत्तरारणि खडी करके रस्सो से मयानी के समान मयी अरण्या--सज्ञा स्त्री० [सं०].एक ग्रोपधि । जाती है । छेद के नीचे कुश या काम रख देते हैं जिसमे आग । अरण्यानी---सज्ञा स्त्री॰ [सं०] १ बीहडे जग न या वीरान जगन्ने । २. लग जाती है। इसके मथने के समय वैदिक मंत्र पढ़ते हैं और | वन की देवी [को०) ।। ऋत्विक् लोग ही इनके मयने आदि का काम करते हैं । यज्ञ में अरण्पायन —सज्ञा पुं॰ [सं०] वानप्रस्थ ग्रथिम में प्रवेश करना [को०]। प्राय अरणि से निकली हुई अाग ही काम में लाई जाती हैं । अरण्यीय---वि० [सं०] १ जगन का 1 २ जगल के ममीप (को०] । ४ चीता नामक वृक्ष या उसकी लकडी 1 ५ एग्रोनक । सोना । अरत--वि० [सं०] १ जो अनुरक्त न हो । जो किमी पदार्थ मे असिक्त पाढा । ६ अग्नि ।। ७ चकमक पत्थर ।। न हो । २ विरत । विरक्त । उ-मन गोरख गोविंद मन, अरणी-सज्ञा स्त्री० [सं०] दे॰ 'अरणि' । मन ही शोषधि सोय । जो मन राखे यतन करि, अपि अरती अरणिकेतु-मझा पुं० [सं०] अग्निमय नामक वृक्ष (को०) । होय ।---कबीर (शब्द॰) । ३ सुस्त । अलसी । ४ असतुष्ट । अरणांमुत-सज्ञा पुं० [सं०] शुकदेव । अरति--संज्ञा स्त्री॰ [सं०] १. विराग । चित्त का न लगना । ३०- विशेप---निखा है कि ग्राम जी का वीर्यपात अरणी पर होने से सुर स्वारथी-मलन मन कीन्ह कुमत्र कुठाट ( रचि प्रपच माया शुकदेव की उत्पत्ति हुई थी। प्रवल म य भ्रम अरति उचाटु ---मानस, २२६Y। २ जैन अरण्य-~-भज्ञा पुं० [मं०] १ वन । जगल । २ कटफल । कायफन । शास्त्रानुसार एक प्रकार का क्रम जिमके उदय में चित किमी ३ सन्यासियो के दस भेदों में से एक । ४, रामायण का । काम में नहीं लगता। यह एक प्रकार का मोहनीय कर्म है । एक कार । अनिष्ठ मे खेद उत्पन्न होने को भी अरति कहते है ३ असतोप यौ० -अरण्यगान अरण्यरोदने । [को॰] । ४. क्रोध [को०)। ५ चिता [को०)। ६ उच्चाटन अरण्यक--सज्ञा पुं० [सं०] १ जगल । ३ जंगली सभा १ ३ एक [को०) । ७ उद्वेग [को॰] । ६ सुस्ती । प्रमाद [को॰] । ९. पौधा (को०) । व्यथा । पीडा (को॰] । १०. एक प्रकार पित्तरोग [को०) । अरण्यकणा--संज्ञा स्त्री॰ [स०] जगली जीरा [को०) । अरति--वि० १ असतुष्ट । २ शातिरहित । अशात । ३. सुस्त । अरण्यगान--सच्ची पुं० [स०] सामवेद के अतर्गत एक गान जी जगल। प्रमादी [को॰] । में गाया जाता था। अरत्त -वि० [हिं०] ३० ‘अरत' । उ०—-मागिन दे हृष्य धरि, अरण्यचद्रिका-सज्ञा स्त्री० [सं० अरण्यचन्द्रिका] जगल की चांदनी अरु पुच्छिय इह बत्त । जा जीवन रत्ती जगत, तू क्यो राज (ना०) । वह शृगार जिसको देखनेवाला या प्रशसा करने- ' अरत-पृ० रा०, ११५४६ । वाला न हो [को०] । अरनि--संज्ञा पुं० [सं०] १ बाहु । हाथ । २ कुहनी । ३. भुट्ठी बँधी अरण्यदमन--सज्ञा पुं० [सं०] दोन नामक एक पौधा । दोना [को०)। हाथ । ४ मीमासा शास्त्र के अनुसार एक माप । अरण्यनृपति—सज्ञा पुं० [सं०] शेर । सिंह (को०] । विशेष—इससे प्राचीन काल में यज्ञ की वेदी अादि मारी जान अरण्यपडित-सज्ञा पुं० [सं० अरण्यपण्डित मूर्ख व्यक्ति । बुद्धिहीन थी । यह माप कुहनी से निष्ठा के सिरे तक होती है । मनुष्य [को०] । अरथ----संज्ञा पुं० [हिं०] १० 'अर्थ' । उ००-नई विद्यापति, अरण्यमक्षिका--संज्ञा स्त्री० [सं०] हौस । जगली मक्खी (कौ०] । कहो वुझाए अरय असंभव के पतिमाए ---विद्यापति, अरण्ययान--संज्ञा स्त्री० [सं०] वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करना [को०)। अरण्यरोदन--सज्ञा पुं० [सं०] १ निष्फल रोना । ऐसी पुकार अरथाना -शि० सं० [म० अर्य + हि० आना (प्रत्य०) ] १ जिसका सुननेवाला कोई न हो ।'२. ऐसी बात जिसपर कोई समझाना। विवरण करना । उ०—पठवौ दृत भरत कौं