पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/३८९

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अजुनच्छवि ३२९ थे। अर्जु नच्छवि-वि० [सं०] सफेः । सफेद रंग बी न । [फो०] । अर्जुनध्वज--संज्ञा पुं० [सं०] सफेद ध्वजाला । हुनूमान [ो०] । अजुनपाकी-सक्षा लो० [सं०] एक पौधा तथा उसका फन (को०) । अर्जुन वदर-संज्ञा पुं० [म०] अर्जुन नामक पौधे का रेशा [को०)। अजून सखा --- संज्ञा पुं० [म०] अर्जुन के मित्र श्रीकृष्ण (को०] ।। अजु नायन- सा पुं० [म०] वराहमिहिर के अनुसार उत्तर गहा एक अजुनीसझा स्त्री० [सं०] १ बाहुदा या करतोया नदी जो हि मात्रय से निकल कर ग II में मि नती है । २ सफेद रग की गाये । ३. कुटनी । ४ अनिरुद्ध की पत्नी । उपा था नाम । ५, एक गएँ जाति [को०)। अजुनीपम--सज्ञा पुं० [भ] नागौन या टीक नाम वृक्ष (को०] । अर्ण --सज्ञा पुं० [सं०] १ बण । अक्षर । जैसे, प वीण = पवार । २ जल । पानी ।। यौ०-दशार्ण = ए के दे ग । दशाण = माल की एक नदी । । ३ एक दडक वृत frमके प्रत्येक चरण में दो नगण और अय गण होते है। यह प्रवित का एक भेद है । ४. सागौन | शान बुक्ष । ५ रग (को०] । ६ शोरगुन । युद्ध घोप (को०)। ७. जलप्रवाह (को॰) । अर्णव-सज्ञा पुं० [सं०] १ समुद्र । २ सूर्य । ३ इद्र । ४ मेEि३ । ५ दइक वृत्त का एक भेद जिसके प्रत्येक चरण में २, नग 1 और 6 रगण होते हैं । यह प्रवित चा एक भेद है । ६ चार की मईया । ७. ररन । मणि । जाहिर । ८. प्रवाह । घोरा (को०] । अर्णवज-सज्ञा पुं० [4] म मुदफेन (को०] । अर्णवनेमि-सा पी० [सं०] पृथ्वी [को०] । अर्णवपत्ति--संज्ञा पुं० [म०] सागर । नमुद [को०)। अर्णवपोत-संज्ञा पुं० [स०] नन्नयान । पानी की जहाज [फो०] । अर्णबमदिर--मज़ापुं० [स० अर्ण मन्दिर] १ वरुण । २ विष्णो०] अणवमल—सज्ञा पुं० [म ०] दे० 'अर्णवज' (को०] । अर्णबयान-सज्ञा पुं॰ [सं०] ३० 'अर्णवपोन' (को०] । अर्णवोद्भव-सज्ञ पुं० [सं०] १ अनि जार नाम का पौधा । चद्रपा । ३ अमृन (को०)। अर्णवोद्भवा--मज्ञा स्त्री॰ [म०] अर्णव से उत्पन्न---लक्ष्मी [को०]।। अर्णस-वि० [सं०] १ तर गपूर्ण । २ फेनिल को०] । अर्ण स्वान्'--मज्ञा पुं॰ [स ० अणंम्वत] मागर [को०)। अर्णस्वान्..-वि० अतिशय जनवाला को०)। अण-सज्ञा सी० [सं०] नदी। अणद-संज्ञा पुं० [स०] १ वदि न । मुस्न नाम का पौधा । मोया (को०) । अणॉनिधि--सज्ञा पुं० [सं०] सागर । भमुद्र [को०] । अरुह-ज्ञा पुं० [सं०] कमल [को०)। अर्तगल--सज्ञा पुं० [१०] नझिटी। गनी कमर को०) भर्तन'—संज्ञा पुं० [म०] निदा (फो०] । अर्नन-वि० । निदा नेपाल । २ दु.श्री । त्रिन (को०] । अति-मज्ञा स्त्री० [३०] [वि॰ असत] १ पीटा। व्यथा ! २ गुप न कोटि । धनुष के दोनों छोर ।। अतिका----सा पी० [१०] (नाट में) । न ३०] ।। | अर्थ–राशT पुं० [मं०] १. श; या अभिप्राय । गनु । हृदय का | माय जी शब्द में प्रकट हु । शन् । निः । विशेप--गाहिन्यणास्त्र में अयं तन प्रकार ग माना गया है-- (क) अभिधा में बाधा , (1) नेवार ? नेपाथ र (ग) | पजना में यग्याथं । वि० प्र०-यन - लगाना |--बँठान । २. अभिप्राय । प्रयोजन | मनन । जै?--- 3; fन अर्थ में बड़ी आया है' (जन्द०)। ३. म । ट। ३० --'वहीं वने में तुम्हार। इस प्रश्र ने निक' । (जब्द०)। क्रि० प्र०-~-पिता --- निवना 1-पना । मात्रा। ४, हैन । निमित्त । जै-'वि: नै पत्र प्रयन रना चाहिए (शब्द०) । ५. दद्रिय) = f५५ ।। ये ५ र ३-7, मंगे, रूप, रन पर गध । ६ अनुबंग में 7 च । धन । नाभि । २० अयंगार के अनुसार मित्र, ग], भूमि, धन, धान्य यादि । प्रानि मौन बद्रि ।। 1 में मग्न । । है । [6] १० यन्तु । पदार्थ (०) । ११ । । । प्रा िज०] । १. याचना । प्रायना कि'० । १३ याम्व र मितिको०)। १४. तौर तया । दृ [के । १५ । रुराव [२] । १६ मूल्य [को०) १७ परि गुन । नन।के०) । १= धन के एक पुत्र (को०] १६. विष्णु २० ० पूर्व नमानी के अनुसार एक श्रेणी अपूर्य [0] । २१ शनि १० । २ दावा ० । यो०-१नयं । ना । ममर्थ । गमन । नार्थ । निरयंक। अर्थपति । अर्थ गीत । अथे । आर्यन प्राप्ति । अनर । प्रयवान् । ग्रंथकर-fi० ० [२०] १० अर्य करी] १ जिन धन उपार्जन | किया जाय । लोनारी, जै--प्रय है। विद्या । अथवम----गशा :{० [१०] १ प रा प्रधा; कम। ३ फयिक कार्य [को०)। अर्थकाम--वि० [अ०] न ही इच्छा रा [को०} । अर्थकिल्विपी----वि० [सं० अर्य-विन्] ना देने में शुदै विदुर न रमे। बेईमान ।। अर्थकृच्छ--सज्ञा० [सं०] १ धन की कमी 1 दरिद्रता । २ राज्र की अार्थिक तंगी । राज्य में व्यय । दना । विशेप-कौटिल्य के अनुसार ऐसी नगी में चंद्रगुप्त के समय में | राज्य जनता में पूरा राज्यकर एक दम से भाग लेना था । अर्थकोविद--वि० [१०] अनुभवी । विशेषज्ञ [फो०] । अर्थगत--वि० [सं०] ब्दि के ग्र पर प्राश्रित को०)। अर्थगर्भ-वि० [न० जिम’ अर्थ भरा हो । अर्यपुत [को०] । अर्यगृह-मज्ञा पुं० [१०] पोप । वननि। जहां या पै! रखा जाता हो [फो०] ।