पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 1).pdf/५१६

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आपक ४४६ पिरूप यौ० -- शापचर = वादल । ३०----फर निए चाप परतापधर । सधिभग द्वार। हो, जिसके ग्रहण के विरुद्ध सारा मइन हो, तीन लोक में थापधर । नृप बज्यो जैसे प्रापधर । भाँपधरन। इत्यादि । [२] । समें दापधर गोपाल (शब्द॰) । अपि निधि = समूह । ३०- पदा--सच्चा जी० [सं०] १ दु ख । क्लेश । विघ्न । २ वियत्ति ! ज्ञानगिरि फोरि, तोरि लाज तरु जाइ मि , अपि ही ते पगा। अाफन । मकट । ३ मकट का समय । जीविका का घप्ट । ज्यो अनिधि श्रीन में |-- केशव ग्र ०, पृ. १२७ । पद्धर्म--संज्ञा पुं० [ सं०] १ वह धर्म जिसका विज्ञान केवल २ अाठ वमुस्रो मे से एक का नाम (को०)। ३ जलप्लावन । बाढ अापकाने के लिये हो । (को०) । ४ जन का सोना या प्रवाह (को०)। ५ प्रकाश (को०)। विशेप-जीविका के संकोच की दशा में जीवनरक्षा के लिये शास्त्रो अापक--वि० [सं०] प्राप क । प्राप्न बरनेवान! (को०) । में ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि के लिये बहुत से ऐसे व्यापारी से आपकर-वि० [म०][वि० स्त्री० श्रापकरी] १ विना मैत्री का । अमैत्री- निवहि करने का विधान है, जिनका करना उनके लिये सुझान | पूर्ण । ३ बुराई या निदा करनेवान्न । ३. अनिष्टकको०) । में वजित है, जैसे,----ब्राह्मण के लिये शस्त्रधारण, खेनी श्रीर अपक्व–वि० [न०] जो अछी तरह न पका हो । कम पका वाणिज्य आदि का करना मना है,पर अापकान में इन व्यापारी | हुआ (को॰] । द्वारा उनके लिये जीविका निर्वाह करने का विधान है। अपिगा-- संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नदी । २ एक नदी का नाम (को०) । पधाप- सच्चा स्त्री० [हिं० श्राप +धाप ] अपनी अपनी विना । प्रापगेय--अझी पुं० [म०] भीष्म पितामह (को॰) । | अपने अपने काम को ध्यान । दे० 'अपाधापी' ।। आपचार -सझा पुं० [हिं०] मनमानी। | अपन , ग्रापनि'---सर्व० [हिं०] दे० 'अपना' । उ०—( क ) अपचारना)---क्रि० अ० [हिं० प्रापचार+ना (प्रत्य०) ] उ०--- श्रापन मोर नीक जो चहहू ।-मानस, २ । ६१ । (ख) अापनि विप नै बिमारचौ तन, के त्रिनामी अपचार यी, जान्यौ हुनी दारुन दीनता कह सवहि सिरु नाइ }--मानस, २॥१८२ । मन ? हैं मनेह कछ बेन सी ---वनानद, पृ० ६३। अपनपो)---सझा पुं० [हिं०] दे॰ 'अपनप' ।। प्रापण---मज्ञा पुं० [म०] १ हाट 1 बजार । २ किया या महसूल अपनपीए'---मज्ञा पुं० [हिं०] १० प्रपनपी' । उ०—त साँच चले जो बाजार में मिले । तवजारी। तजि अपनप, झिझके कपटी जो निसक नही ।--इतिहास, पृ० ३४३ । आपत्-पझी स्त्री० [सं०] 'ग्रपद' का समामगत रूम (को०] । अपना -मर्व० [हिं०] दे॰ 'झपना'। उ० -भजि रघुपति करु अपित्त -मज्ञा स्त्री० [सं० प्रापद दे० 'पद्' । हित अपना । छाडहु नाथ नृप। जल्पना ।—मानस, ६१५५। आपत्कल्प-- संज्ञा पुं० [म०] दे॰ 'पद्वर्म’ [को०] । पनिक - मशा पु० [भ] १. वहुमूल्य ही पत्थर । पन्ना । २ भापत्काल--- सज्ञा पुं० [सं०][वि० अपालिक] १ विपत्ति । दुदिना । जगली जाति । किरात (को॰) । २ दुष्काल । कुसमय । झापनिधिG--सज्ञा पुं० [सं० अपोनिधि] जलनिधि । समुद्र । उ०- पित्कृतऋण---संज्ञा पुं० [अ०] बह ऋण जो कोई आपत्ति पड़ने पर अापहि ते अपि गाज्यो श्रापनिधि प्रीति में केशव प्र०, भा० लिया जाय । ९, पृ० १२७ ।। आपत्ति-सज्ञा स्त्री० [१०] १. दु । क्लेश । विध्न ! २ विपनि। विपना अपनो पर –सर्व० [हिं० दे० 'अपना' । ३०-~-केहि अव अवगुन से कट । अफिन । ३ कष्ट को समय । ४ जीविकाकप्टै ! ५ अपना कर डारि दिया रे ।—तु नमी ग्रे ० पृ० ४७१ ।। दोपारोपण । ६ उच्च । एतराज । जैसे,—हमको यापकी वात प्रपन्न--वि० [सं०] १ आपदग्रस्त । दुखी । ३ प्राप्ने । मानने में कोई आपत्ति नहीं हैं। ७ प्राप्ति (को०] । यौ०-- पन्नसत्त्व = गमणी । सकटापन्न । पद्--सझा स्त्री० [१०] १ विपत्ति । अपत्ति । २ दु । कष्ट । प्रापपति--संज्ञा पुं० [भ० प +पति ]समुद्र । उ०--काँपि उठ्यो विघ्न । अाफ्पति तपनहि ताप चढी, सीरी यो सरीर गति भई रजनीम यो०- अपिगत, अपग्रस्त, झापदृप्राप्न =(१) श्राफत में पड़ा | |--केशव ग्र०, भा० १, पृ० १२८ । है । (२) अ मगा। श्राप में । अापत्रिनीत = कष्ट या पिमित्यक--- वि० [सं०] विनिमय अथवा अदल बदल द्वारा प्राप्त विपत्ति में नम्र होनेवाला । | ( संपत्ति ) [को॰] । आपद--संज्ञा स्त्री० [म० श्रापद! P० ‘प्रापद्' । आपया)--मज्ञा श्री० [ स० अपिगा] नदी । झापदर्थ--सज्ञा पुं० [१०] व धन या सपत्ति जिसके प्राप्त करने पर अपरालिंक-वि० [सं०] अपराह्ण या तीसरे पहर होनेदान की। | अागे चल कर अपना अनिष्ट हो । अपरूप'- वि० [हिं० प + मॅरूप]अपने रूप में युक्त । मूमान् । विशेष-जिस मपत्ति के लेने पर गनुओं की मस्या बढे, व्यय साक्षात् (महापुरुषों के लिये) । जैसे,---इतने ही में प्रापरू या क्षय वढे हाथवा दूसरो को बहुत कुछ देना पड़े, वह प्रापदर्थ भगवान प्रकट हुए । है । कौटिय ने प्रापदर्थ के अनेक दृष्टात दिए हैं, जैसे,--बहू अपरूप--सर्व० सादर रत् श्राप । अाप महापुरुष । ये महापुरुष । बुद नपत्ति जो कुछ दिनों पीछे भिननेवागी हो, जिसे पीछे से बदौलत । हजरत (व्यग्य) । जैसे,—(क) यह सब अपरूप ही कुपित होकर पदमश्रा छीन ने, जो मित्र के नाश या की करतूत है। (ख) यह देत्रिए अब पापा आए हैं ।