पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/१८

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हिंदी शब्दसागर उ-१ हिंदी वर्णमाला का पाँचवाँ अक्षर। इसका उच्चारणस्यान उ ट(---सच्चा पुं० [हिं० ट] दे० 'ॐ' । उ०-से पचदिन्न अति उट शोष्ठ है । यह तीन मुख्य स्वरो में है। इसके ह्रस्व, दीर्घ, अच्छ। कार भार फक्कार कच्छ ॥ दोइ से दिन्न प्लुत तथा सानुनासिक और निरनुनामिक भेद से १८ दासो सुचग । झनैकत । तीम द्रप्पन सुअग ॥ भेद होते हैं । 'उ' को गुण करने से श्रो' और वृद्धि करने से पृ० राo, ४।११ । होता है । उड -[स० उण्डुक] शरीर का अंग-पेट । उ०---पंड हुथ्थ उकुण---सच्चा पुं० [सं० उकुण] खटेमूल [को०] । नर व ड । अष्ट अगुल अर्घ वपु ।--पृ० रा०, १॥२४४ । उगल-सूझा पुं० [म. अडगुलि] दे॰ 'अगुल' । ' उडले —सक्षा पुं० [सं० उण्डुक] १. शरीर का एक भाग--पेट । उ गलि-सज्ञा पुं० [सं० अङ्गुलि] दे० 'अगुन । उ०—-मैसत ३ गलि उ०-.-उचाय धाय उडले । हिरन्नकस्य खडले ।। छुटत कट्टि वाई वेलु । मनि नाचु अहार करि (तास) मेलु ।---प्राण०, ठुम्मर । उठत मुख्छ घुम्मर ॥--पृ० रा०, २११७) । २. १॥६६ । मच । मचान । उच्चामन ! ३ अत का आवरण । उच(यु–दि० [हिं० ॐ चा] १ ऊँची । अधिक । २. उपयुक्त । ३. उडुक-सझी पुं० [सं० उण्डुक] १ कुष्ठ रोग का एक भेद । २ जाल । | योग्य । उ०—यो यरप्प दुग्न वित्ति गय । भइअ वैसे वर । ३ शरीर का हिस्सा--पेट [को०] । । उ च |-पृ० रा०, २५॥१७६ । उदन--सच्चा पु० [सं० उन्दन] गीला करना । भिगोना [को०) । उचन--सच्ची, स्त्री० [सं० उदयन = ऊपरखींचना या उठाना]अदवायन । उदर--संज्ञा पुं० [सं० उन्दुर] दे० 'उ दुर' । उ०——ज्यो उगह मुष अंदवन । वह रस्सी जो खट के पायताने की तरफ बुनावट से । उदर परे । यो सुदेह नाहर है । भवतव्ये बात मिट्ट नही। छूटे हुए स्थान को भरती है और जिसको खीचकर कसने से नाम एक जुगजुर रहैं ।—पृ० रा०, ७/१५० ।। बुनावट तनकर कडी हो जाती है । उदरी--सज्ञा स्त्री० [सं० उन्दुर] चुहिया । उ०—स्यध बैठा पान कतरे, सुचना--क्रि० स० [सं० उदञ्चन] ऋदवान तान्ना । उ चन कैसना। घूस गिलौरा लावे । उदरी वपुरी मंगल गावे कछु एक शानदं अदवान खींचना । सुनावै ॥—कबीर ग्र०, पृ० ६२ । उचास---वि० [हिं० चास] दे० 'उनचास' । उ'दुर--सक्षा पुं० [सं० उन्दुर] चूहा। मूसा । उ०--(क) उदुर राजा उच्छाहे---वि० [सं० उत्साह] उत्साहपूर्वक । उत्साह से । उ0 टीका वैठे विपहर कर खवामी । श्वान वापूरो धरनि ठाकुरो वीर पुरुप कइ जमग्नइ नाह न जपई नाम । जइ उच्छाहे फुर विल्ली घर में दामी |--कबीर (शब्द०) । (ख) कीन्हेसि कहमि हो शाकण्डन काम |--कीति०, पृ० ६ । लोवा उँदुर चटी । कीन्हेसि वहुत रहहि खनि माटी ॥-- उ छ---मझा स्त्री० [स० उञ्छ मालिक के ले जाने के पीछे खेत में। जायसी (शब्द॰) । पड़े हुए अन्न के एक एक दाने को जीविका के लिये चुनने का उदृरणका--सच्चा स्त्री० [सं० उन्दुरकणिका] दे॰ 'उरकण । काम 1 सीला बीनना । उदुरकर्णी-सच्चा स्वी० [सं० उन्दुरकर्णी] एक प्रकार की लत (को०)। यौ०-उछुवर्ती। छवृत्ति । उ छल ।। उ नंगनो--क्रि० अ० [सं० उल्लघन] दे॰ 'उलघना' । उ०-- उ छन--सज्ञा पुं० [म० उन्छन] गल्ले की मंडी में भूमि पर गिरे हुए जैनगे सुरताने दल । सारु हो चतुरग ।।—पृ0 रा०, १३।६२ । दोनो को वीनने का कार्य कौ । उपती -क्रि० अ० दे० 'अोपना' । उ०—-चालुके चातु' वीर बर। उ छवृत्ति सझा स्त्री० [सं० उञ्छवृत्ति] खेत में गिरे हुए दोनो को जिन उ पत मुदव पानि ।। - पृ० रा०, ५३० । चुनकर जीवननिर्वाह करने का कर्म ।। उ वर उ बुर--सज्ञा पुं० [म० उम्बर, उम्बुर चौखट की ऊपरी लकड़ी उ छशिल–सल्ला पु० [सं० उञ्छशिल] उछवृत्ति । जिसे भरेठा भी कहते हैं (को०] । उ छशील-वि० [सं० उन्शील] उ छवृत्ति पर निर्वाह करनेवाला । उ वी- संज्ञा स्त्री० [म उम्वी] गोली घास की प्राग पर पकाई हुई जौ उ झट---सद्मा पु० [देश॰] दे॰ 'झझट' । उ0---सौ ३ झट मैं उलझों गेह' की बाल । चिकित्सा में इसका प्रयोग कि; जाता | को कैसे के सुलझा ।—प्रेमघन०, १४१६१ । है [को॰] ।