पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३०१

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कैरेसन करवीनकै करप'- संज्ञा पुं० [सं० कर्प] १. खिचाव । मनमोटाव । अकस। करवानक-संज्ञा पुं० [सं० कलविङ चुटक पक्षी। गौरैया । उ०- तनाजा । तनाव। द्रोह । उ०—कत करप हरि सन परि सृरिस से नुवा, करवानक से साहजादे, मोर से मुगुल मीर धीर हुरहू । मोर कहा अति हित हिय घरहू ।—तुलसी (शब्द०)। ही बच नहीं -भूषण (शब्द॰) । २ क्रोध । अमर्प । ताव । लडाई का जोश ! ३०-वातहि करवाना- क्रि० स० [हिं० करना का 7 ० रूप] करने में लगाना । बात करक बडि अाई। जुगुज अतुल बल पुनि तरुनाई। दूसरे को करने में प्रवृत्त करना । तुलसी (शब्द॰) । कुरवार(q--सज्ञा स्त्री० [सं० करबाल] तलवार । उ०—फूले फदकते। -सज्ञा पुं० [अ० कलक] दुख | व्यया । उ०—सुण वाणी लै फेरी पल कटाछकरवार। करत बचावत विय नयन पायक कप ०, तन करप मिटे सह छक बँदै मन हरप छया ।-रघु० धाय हुज़ार --दिहारी (शब्द॰) । पृ० ६८ ।। करवाल-सज्ञा पुं० [सं० करवाल १ नव । नाखून । २ तलवार । करपक--संज्ञा पुं० [सं० कर्षक] खेती से जीविका करनेवाला । करवालिका-घा जी० [स०]छोटा डंडा । र्याप्ट। लगुड ! दंड (३०] । किसान । खेतिहर । उ०--गइ वरषा करपक विकन सूखत करवाली-ज्ञा स्त्री[स० करदाल] छोटी तलवार । कराली । उ०--- सालि सुनाज !- तुलसी ग्र०, पृ०, ६७१ । कर करवाली सौह जया काली विकराली ।- गोपाल(शब्द०)। करपना=क्रि० स० [सं० कपण] १ खींचना । तानना । घसीटना। करवावना-क्रि० स० [हिं० करवाना] दे० 'करवाना' । उ०--श्री उ०-(क) वारहि वार अमरपत करपत करके परी सरीर ।ठाकुर जी को अपने कार्यार्थ श्रम नाहीं करवावनो -दो सौ तुलसी (शब्द॰) । (ख) सुर तरु सुमन माल सुर बरपहि ।वादन, भा० १, पृ० ३३१ । मनहू' वलाक अवलि मनु कर पहि ! —तुलसी (शब्द॰) । (ग) करवी-प्रज्ञा स्त्री॰ [देश॰] पशुओ का चारा । उ० -सारा गाँव पद नख निरषि देवसरि हुरपी । सुनि प्रभू वचन मोह मति सोता या पर सुजान करवी काट रहे थे ।—मान०, भा० ५, करपी -तुलसी (शब्द॰) । २ सोख लेना। सुखाना। पृ० १८५ ! जज्ब करना। उ०--कोइ सिजे पालै सहार। कोइ वर्ष विशेष—यह प्राय ज्वार बाजरे के हरे या सूखे पौधो की कर कोई जारै ।—रधुनाथ (शब्द॰) । ३ बुलाना। निमहोती है। त्रित करना 1 अाकर्षण करना । समैटना ! इकट्ठा करना । बटोरना। उ०—सुनि वसुदेव देवकी हरये । गोद लगाइ सकल करवीर, करवीरक-सज्ञा पुं० [सं०] १ कनेर का पेड। २ तलवार । सुख करणे —(शब्द॰) । तुग ! ३ श्मशान । ४ ब्रह्मावर्त देश में दृशद्वती के किनारे करपा - सच्ची पुं० [सं० कपं] १ उत्तेजना वढावा । उ०— की एक प्राचीन राजधानी । ५ चेदि देश का एक नगर जहाँ (क) एकहि एक बढ़ावहि कन्षा । —मानस, १ । १६१ । के राजा शृगाल ने कृष्ण और वलराम को उस समय रोका (ख) करपा तजिकै परुपा वरषा हित मारुत घाम सदा या, जब वे जरासव के मांगने पर करवीर की अोर ससैन्य जा सहिकै ।—(शब्द॰) । २ क्रोध । अमर्प । ताद । लडाई रहे थे। का जोश । । करवीराक्ष-सा पु० [सं०] खर राक्षस का एक सेनापति जिसे रामचद्र ने मारा था । करपेव –वि० [स० कृश + इव] कृश । दुर्वल । कमजोर । करसंपुट-सा पुं० [सं०] १ हाथों की अंजलि । २ हाथ जोड़कर करवील-सज्ञा पु० वि० करी] करील । टेंटी का पेड़। कचढ़ा। | विनय करने की मुद्रा । उ०—मिरुनाई देव मनाय सव सन करवेया --वि० [हिं० करना+वैया (प्रत्य०]] करनेवाला ।। कहुत करसेपुट किएँ ।-- मानस, २।३२६ । करवटी-सच्चा पु० [देश॰] एक चिडिया का नाम । उ० -- करबोटी करसरा--सज्ञा पु० [स० कर्षण] कृपि । खेती। उ०—ढ़ाठी एक | वागवगी नाक वासु। वैसर ६ श्यामा वया कर ना गरूर संदेशड़उ ढोल इ लगि लइ जाइ । कण पाक उ कर सण हुवउ गहियतु है (चिडि मारिन) ।-रघुनाथ (शब्द॰) । भोग लियउ घरि अाइ |--ढोला०, दू० १२१ । करशाखा-सुच्चा स्वी० [भ] उगली ! कर-सज्ञा पुं॰ [देश॰] हिमालय पर होने वाला एक वडा सदाबहार कसण–सञ्चा पुं० [स० कृष्ण ] दे॰ कृष्ण' । करसना--क्रि० स० [सं० फर्पण] दे॰ 'करसना'। उ०—या पर पेड़ । कृष्न चरन परसिहैं। इत ते अति दुटहि करसिहैं ।-नद० विशेष—यह अफगानिस्तान से लेकर भूटान तक होता है। इसकी ग्र०, पृ० २७६ ।। लकही बहुत दिनों तक रहती है और बड़ी मजबूत होती है । करसनी- सझा चौ० [दवा०] एक प्रकार की लता। इसका कोयला भी वहत अच्छा होता हैं। इसकी पत्तियाँ चारे विशेष—यह समस्त उत्तर भारत में होती है। इसकी पत्तियाँ के काम में आती हैं। इसपर चीनी रेशम के कीड़े भी पाले २-३ इच नवी होती हैं जिनपर भूरे रग के रोएँ होते हैं । जाते हैं। यह फरवरी और मार्च में फूलती है। इसके पके फलो के रग करशुक—संज्ञा पुं० [म०] नव । नाखून कौ । से एक प्रकार की वैगनी स्याही बनती है। इसकी जड़ अौर करमा-सज्ञा पुं० [फा० किरिश्मह] चमत्कार । अद्भुत व्यापार | पत्तियाँ दवा के काम अती है। इसको हीर भी कहते हैं। कमात्र ।