पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/३६४

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काँस्टेने ६६8 काँगडी । १३३ कास्टेल-- सच्चा पुं० [अ० कान्स्टेवले पुलिस का सिपाही । यौ॰----हेड कांस्टेल = पुलिस के सिपाहियों की जमादार । कास्य- सच्ची पुं० [सं०] १ कोसा । कसकुट । यौ----कास्यकार । फम्यदोहनी । २ धातु का बना हुआ पानपात्र (को॰) । कास्यक-संज्ञा पुं० [स] पीतल (को॰] । कस्यिकार--सा पुं० [सं०] कसेर । 'म रतवाला । ठठेरा । कास्यताल–सच्चा पुं० [सं०] मंजीरा । ताल । कास्यदोहनी- सच्चा स्त्री० [सं०] काँसे का बर्तन जिसमें दूध दुहा जाता है। कमौरी । । विशेष—यह गोदान के साथ दी जाती है । कास्प्रभोजन-सा पुं० [सं०] कसे का बरतन (को॰] । कास्यमल-सच्ची पुं० [सं०] तुवा पीतल आदि धातुपों में लगनेवाला | मोर्चा की। | कास्ययुग-सच्चा पुं० [सं०] इतिहास का वह युग जब अस्त्र शस्त्र और वर्तन आदि काँसे के बनते थे । का --प्रत्य[हिं०]६०'को' । ३०- साईं नाव तोहि का माथ । -जग० बानो, पृ० ३३ ।। का –क्रि० वि० [हिं० कहाँ का सक्षिप्त रूप]दे० 'कहाँ' । 9- गया था की वेरा तव होश दाई, जो ऐसे मुस्त दीवाने को लाई ।--दक्खिनी॰, पृ० २५१। । का इ--सर्वं० [अप०]कोई । कुछ। उ०—मैं अकेला ऐ दोइ जणू छेती नहीं कई !-कवीर ग्रे २, पृ० ७२ । झाइया-वि० [अनु० कवि कवि =कौए का शव्द)]चालाक, धुर्त । की ई+अव्य० [सं० किम्] क्यों । उ०—माई म्हाको स्वप्न में बरनी गोनाल । राती पीती चुनरि पहिरो मेहँदी पाणि रसाल । काँई और की भरो भवरे म्हाको जग जजाल । भीरा प्रम् गिरधरन लला स करी सगाई हाल ---मीरा (शब्द॰) । का ई-~-सर्व० [हिं० काहि] किसे । किसको। का को---सा पुं० [सं० फड्कु] कॅगनी नाम का अनाज। का क सूज्ञा पुं॰ [सं० कङ्क] १. सफेद चील । केक। ३. गीध । काकड'५–सझा पुं० [सं० फर्कर, हि० कका] दे॰ 'कोड' । उ०—- कासली पडेलो भूमि कांकड़े पैगाम --शिखर०, १० ३३। काकड़--सुधा पुं० [हिं० कक; कपास का वीज । विनोला । का कह ---सञ्ज्ञा पुं० [सं० कडू] युद्ध । उ०—झाकण समै कुवेलियाँ सरकण तणो सुभाव --वाँकी०, १०, भा० ३, पृ० २४ । का कर -सल्ला पुं॰ [सं० कर्कर) [ 9 अल्प० कोकरी का । उ०—(क) कर पाथर 'जोरिके मसजिद लई चुनाय । ता चढ़ि मुल्ला बौग दे क्या वहिरा हुमा खुदाय?---कवीर (शब्द॰) (ख) कुस कंटक मग काँकर नाना । चलब पियादे बिनु पदत्राना -तुलसी (शब्द॰) । | का करी-सी श्री० [हिं० हॉकर का अल्पा०] छोटा कंकड़ -- (क) कुस अटक होकरी कुराई । कटुक कठोर कुवस्तु दुराई । इससी (०)। (अ) गदी सोरी रेरि । बर्ष जसरी मारि नहि विसरै बिसरयडू हरे होकरी नारि -- सेतु (शब्द०)। मुहा०-- काँकरी चुनना = चुपचाप मन मारकर बैठना । चिता या वियोग के दुख से किसी काम में मन ने उगना । काँक —सज्ञा पुं० [हि० ककर] १० 'कॉकर'। इ०-घर वैठे | अनि उछ नीद करत 'कोकरु’ चलावत निब्र पाहि किन सीख । दीनी अहो ले ।--धनानद' पृ० ४६२ । काँकल -सज्ञा पुं० [सं० कङ्क] युद्ध । ३०--मचिये कोकल मदत री, वीर न देखे वाट - वाँकी ग्र०, मा० १, पृ० ५। काका--सज्ञा पुं० [अनु॰]कौए को वोली। उ०-रोहित साव27 (talk)घरी एक सन्जन कुटुब मिनि वैठे रुदन कहीं। जैसे काग काग के मूए को को करि उडि जाही ।----सूर (शब्द॰) । कोकून(j---सा स्त्री० [सं० फड़ दे० कगन' । कांकुनी-सा चौ• [हिं० कोकुन दे० 'कॅगनी' । कांख-सुशा जी० [सं० कक्ष] वाहुमूल के नीचे की अोर का गडळी । वगल । उ०--- अगदादि कपि मुत्र करि समेत सुग्रोव । कोख दावि कपिराज कई चुला अमित बल सीव ।-नुलसी (शब्द॰) । काँखना--क्रि० अ० [अनू०] १. किसी श्रम या पीड़ा से है अहि अादि शब्द में है से निकालना । २ मल या मूत्र को निकालने के लिये पेट की वायु को देवाना। काँखासोती--सा श्री० [हिं० कोख +सं० श्रोत्र, प्रा० सौत दुपट्टा डालने का एक ढग । जनेउ की तरह दुपट्टा डालने का ढंग । उ०- पियर उपरनाकखासोती । दुई माचरन्हि लगे मनि मोठी ---तुलसी (शब्द०)। विशेष—इसमें दुपट्टे को वाँए कधे और पीठ पर से ले जाकर दाहिनी वगल के नीचे से निकालते हैं और फिर बाँए कच्चे पर डाल लेवे हैं । काँखी -सच्चा पुं० [सं० काक्षिन] दे० 'कादशी' । वृ०---शुक्र भागवत प्रकट करि गायो कछु न दुविधा राखी । सूरदास व्रजनारि स्वर्ग हुरि माँग करहिं नही कोउ काँखी।---सूर (शब्द॰) । काँगडा'--सूझा पुं० [सं० कक] खाकी रग का एक पक्ष । विशेष—इसकी छाती सफेद, कनपटी लाल और चोटी काली होती है। यह डोलडोल में बुलबुल से बड़ा और गिलगिलिया से छोटा होता है। कागडी-सच्चा पुं० [देश॰] पजाब प्रात का एक छोटा पहाडी प्रदेश । उ०-- मथुरा को छोड़कर कोद काग मे गई ।---कवीर में, पृ० ४० । । विशेष—इसमें एक छोटा ज्वालामुखी पर्वत है जो ज्वालामुखी | देवी के नाम से प्रसिद्ध है। प्राचीन काल में यह कुलूत मौर कुलिंग प्रदेथ के अवगत था । काँगडी--- सुमो जी० [हिं० कोगएक छोटी अगोळी जिसे कश्मीरी लोग गले में लटकाए रते हैं । विशेषयह अंगूर के बेल की बनती है इसके भीतर मिट्टी लपेट रहती है। पुरुष इसे गले में छाती के पास पौर स्त्रिया नाभि पर इदादी।