पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/४६

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उतंग ५६ उतरना तव लेवे नि सक, इहि विधान पूजे गिरिहि नर पर बुद्धि बुदबुदा गुन्न उतपत नया सुन्न। गगह फिर गुप्त होई ।- उत्तक ।- गोप ले ( शब्द० ) । १ जो रे०, १० २७ } उतर --वि० [स० उत्तङ्ग, प्रा० उत्तग] १ ऊँचा । बलद । उ०- उतपन्न--वि॰ [ H० उत्पन्न ] ६० उत्पन्न । अति उतग जलनिधि चद् पासा, कनक कोट कर परम प्रकासा । उतपात --संज्ञा पुं॰ [ १० जरपति ] ३• उपात' । उ०—मूमन -मानस ५।३ ।। अमित उतपात राब भरत चरि जर जाग 1-मानस, १ ३१ । उत-वि० [सं० उत्त, प्रा० उग [ २० 'उतग' । उ०—सहजै उतपानना'---वि० स० [ रा० उत्पादन या उत्पन्न पो प्रा० ] सहजै मेला होगा, जागी भक्ति उत्गा – वीर श०, उपाय ] उत्पन्न रन । उपनाना । करना । उ०—- भा॰ २, पृ० ६१ ।। तासा मिलि नृप वढू बुद्र माने, पष्ट पुत्र तारा उनपाने ।- उतत -वि० [ स० उन्नत पा उत्तत = ऊँचा ] सयाना । जवान । नूर (शब्द॰) । वडा । उ०—'भई उतत पदमावति वारी, रचि रचि विधि से उतपननी --मि० अ०---उत्पन्न होना । कला सवारी ।--जाय सी ( शब्द० ) 1 उतमगq-सुश: पु० [सं० उत्तमात्र ] ३० "उत्तमाग'। उत्सG-सज्ञा पुं॰ [ स० उत्तरी ] ६० 'उत्त स' । उतरग-सज्ञा पुं॰ [ स० उत्तरङ्ग ] वाडी या पत्र की पूरी जो उतसक -वि० [सं० उस +९ ( प्र० } ६० 'यतस’ दरवाजों में साहू के ऊपर पैठाई जाती है । उ०-जव जब जो उद्गार होइ अति प्रेम विध्वसंक। उतर -सज्ञा पुं० [सं० उत्तर] ६० 'यार' । उ०—(क) उनर देतु छ सोइ सोइ करे निरोध गोपकुल केलि उतराक । नद ग्र०, बिनु पारे, केयन कौनि गोल तुम्हारे 1-मानस, २२७५ । पृ० ४४ । () पृनि धनि कन हो पान मस माँगी, उनर निT भी उहँग–वि० [ स० उत्तइ ] ३० ‘उत्तग' । उ०—उसँग जंभीर होइ तन माँगी ।-जायची ग्र० पृ० ९९ ! रखवारी, छइ को सके राजा के वारी --जायसी ग्र०, उतन:-आज्ञा स्त्री० [हिं० उतरना २ पढ़ने 3ए पुराने पद । पृ० १६ । उतरन-सा पुं० [हिं० ! ५० 'उतरन' । उतथ्य -सज्ञा पुं॰ [ स० ] अगिरस गोत्र के एक ऋषि । उतरन पुतरन-संज्ञा स्त्री० [हिं० उतरना + मनु० ] उतारे हुए विशेष—यह बृहस्पति के बड़े भाई थे । इनके वनाए बहुत से पुराने वस्त्र ।। मत्र वेदो में हैं। उतरना'.-० अ० [ से अवतरण या प्रा० उत्तरण ] [ Fि० स० यो०-उतथ्यानुज = वृहस्पति । उतथ्यतनय = गौतम । उतरना । प्रे० उतरवाना ] २. अपनी धष्टा से ऊपर से नीचे उतन -क्रि० वि० [हिं० उ = उत +तन ( प्रत्य॰)] उस अना । ऊँचे स्थान से से भलकर नीचे माना । जैसे, पोउ से तरफ । उस र । उ०---उतन ग्वालि किन चली ये उतरना, फोठे पर से उभरना इत्यादि । २ टनना। अवनति उनये घनघोर । ही प्रायों लखि तुव घरै पैठत कारो चोर । पर होना । पटाव पर होना । ह्रायो-मुर होना । जैसे- ( शब्द०)। ( क ) उसकी अब उतरती अवस्था है। ( प ) नदो प्रव उतना--वि० [हिं० उस+तन (हि० प्रत्य० स० 'तावाने' से ) उतर गई है। ३ शरीर मे किती जोड, नेवा या हड्डी का अपनी या हिं० उत+ना (प्रत्य॰)] उस मात्रा का । उस कदर । जगह से हट जाना। जैसे, ( क ) उसका कुना उतर गया। । जैसे,—वानको को जितना अराम माता दे सब तो है उनना ( ख ) यहाँ की नस उतर गई है । ४ काति पा स्वर का और कोई नही । फीका पड़ना, बिगडना या घीमा १डना । जैम, ( क ) धूप उतना--क्रि० वि० उस परिमाण से । उस मात्रा से । जैसे,—अरे भाई खाते खाते उसका रंग उतर गया है। ( ख ) ये आग पर्व उतना ही चलना जितना चल सको । उतर गए हैं, खाने योग्य नहीं है । ( ग ) उत्तका चेहरा उतन्ना--सज्ञा पुं० [स उस अथवा देशज ] एक प्रकार की वाली उतर गया है ।( ६ ) देखो स्वर कैसा उतरता चढता है । जो कान के ऊपरी भाग में पहनी जाती है। ५ किसी उग्र प्रभाव या उद्वेग का दूर होना । जैसे, नशा उतपति -सज्ञा स्त्री० [सं० उत्पति] ६०० उत्पत्ति' । उ०---कैसे उनरना। विष उतरना। ( ६ ) किसी निदिई कालविंग | ऐसे रूप की नर ते उतपति होइ। भूतल ते निकसति कहू जैसे, वर्ष, मासे या नक्षत्र विशेष का समाप्त होना । जैसे, विज्जु छटा की लोइ ।-शकुंतला, पृ० २१। ( क ) प्रापाढ़ उतरते उतरते वे आएँगे । ( ख ) शनि की उतपत्ति---सिंज्ञा स्त्री० [सं० उत्पत्ति] ६० 'उत्पत्ति' । उ०- महिं ते दश अव उतर रही है। उतपत्ति है कर्महि ते सव नास । कर्म किए से मुक्ति होइ विशेप---दिन या उससे छोटे कालविभाग के लिये 'उतरन' का परब्रह्मपुर वास ।—नद० ग्न १, पृ० १७६ ।। प्रयोग नहीं होता, जैसे---यह नहीं कहा जाता कि सोमवार इनुपय--संज्ञा पुं॰ [ सं० उत्सय } बिपथ । कुपय । उ०—-घरो उतर गया।' वा 'एकादशी उतर गई । करे बधिर पुनि करहीं । उतपय चलत विचार न टरही । । ७. किसी ऐसी वस्तु को तैयार होना, जो सूत या उसी प्रकार नद०, अ ०, पृ० २१४ ।। की और किसी अखह सामग्री के थोड़े थोड' अश बरावर --क्रि० अ० [सं० उत्पन्न] उत्पन्न होना । उ०—सुन्न का वैठाते जाने से तैयार हो। सूई तागे यादि से वननेवाली चीजों