पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/१५९

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( ११४ ) हिन्दी में विस्तार से प्रतिपादन भी अखरेगा ! वे ‘विस्तर से प्रतिपादन पसन्द करेंगे ! परन्तु हिन्दी उनकी पसन्दगी का ध्यान कर के अपना सरले मार्ग कैसे छोड़ देगी ? हिन्दी में २' के ऊपर 'र' का उच्चारण खूब प्रचलित हैं, अन्य शब्दों में । हिन्दी ने अपने स्वरूप-गठन में यह झंझट ( व्यंजनान्त शब्दों की) रखी ही नहीं है। यहाँ तो सब कुछ स्वरान्त है । परन्तु “कर्स अबाद' कारवाई' आदि में रेफ के साथ रेफ श्रुत है। जैसे फर्रुखाबाद उसी तरह पुनर्रचना’ ! जो भी हो, यह संस्कृत की । रि' तथा ठूलोपे पूर्वस्व दीर्थोऽणः' वाली सन्धि हिन्दी में नहीं चलती; न चलेगी । संस्कृत में भी ‘अन्तऋगा' जैसे अटपटे रूप-उच्चारण चलते हैं ! यह “अन्तर्रिण' ही तो है न ? परन्तु संस्कृत ऋ' को बनाए रख कर वैदिक भाषा तक पहुँचती है ! वहाँ 'ऋ' की रहना जरूरी है, भळे ही उच्चारण कुछ हो ! यहाँ मतलब की बात इतनी कि ‘र के साथ २' का उच्चारण संस्कृत वाले भी करते हैं । 'ऋ' में पहले ' है, इसी लिए वई आश्रित व्यंजनों को आत्मसात् नहीं करती । र, रि, री, रू, की तरह मैं ऋ' की मात्रा लगाइए न ! कैसे लगे ? सो, उच्चारण में कोई दिक्कत नहीं है-पुनररचना मजे से चलेगा । या फिर पुनः-रचना ठीक । पुनारचना' “अन्ताराष्ट्र हिन्दी को ग्राह्य नहीं-यह सन्धि' ग्राह्य नहीं है। अतएव' शब्द में विसर्गों का लोप है । अतः तुम्हें यह काम करना होगा अादि में अतः अभ्यस्त है; इस लिए समझ में आ जाता है । ‘अतएव' बना-बनाया साल हिन्दी ने ले लिया। अब इसके लिए बह व्यापक सन्धि-नियम बच्चों से रटाने की अावश्यकता नहीं । बतलः दिया, यहाँ वित छा लोप हो या है, बस । नियम न लेने से ‘अतः एक वर्ष पर्याप्त है। आदि में ‘अतः एक जैसे रूप चलते हैं। वह नियम ले लेने से तो अत एक वर्ष करना होगा | सब हिन्दी अपना स्वरूप खो बैठेगी ! यह हो नहीं सकता। संस्कृत-व्याकरण से प्रथमोऽध्यायः आदि में जो सन्धि-रूप बनते-चलते हैं, उनका हिन्दी में स्थान नहीं है । यहाँ विसर्ग-रहित-प्रथम अध्याय प्रयोग होते हैं ! इ., पुरानी है अबधी तथ? ब्रजनाषा की } कविता में क्वचितू संस्कृत भाषा का संस्कार कवियों से नहीं छूटा है और उन्होंने-‘चलिञ्चोऽब फित जैसे प्रयो जरूर किए हैं---°ालो - अ ='उलिव' । सो यह हिन्दी की विभिन्न बोलियों की अपनी प्रवृद्धि समझिए और चाहे ‘अर्ष अयोग' समझिए ! झाड़ देंखे भी कह? रास्ता बदल देते हैं ! कोशिंदास भी कहीं