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हिंदी-साहित्य का इतिहास


रैदास हो कोई ग्रंथ नहीं मिलता; फुटकल पद ही 'बानी' के नाम से 'संतबानी सीरीज' में संगृहीत हैं। चालीस पद तो 'आदि गुरुग्रंथ साहब' में दिए गए हैं। कुछ पद नीचे उद्धृत किए जाते हैं––

दूध त बछरै थनह बिडारेउ। फुलु भँवर, जलु मीन बिगारेउ॥
माई, गोबिंद पूजा कहा लै चढ़ावउँ। अवरु त फूल अनूपु न पावउँ॥
मलयागिरवै रहै हैं भुअंगा। विषु अमृत बसहीं इक संगा॥
तन मन अरपउँ, पूज चढ़ावउँ। गुरु परसादि निरंजन पावउँ॥
पूजा अरचा आहि न तोरी। कह रविदास कवनि गति मोरी॥
अखिल खिलै नहिं, का कह पंडित, कोई न कहै समुझाई।
अबरन बरन रूप नहिं जाके, कहँ लौ लाइ समाई।
चंद सूर नहिं, राति दिवस, नहिं धरनि अकास न भाई॥
करम अकरम नहिं, सुभ असुभ नहिं, का कहि देहुँ बड़ाई‍॥


जब हम होते तब तू नाहीं, अब तू ही, मैं नाहीं।
अतल अगम जैसे लहरि मइ उदधि, जल केवल जलमाहीं॥


माधव क्या कहिए प्रभु ऐसा। जैसा मानिए होई न तैसा।
नरपति एक सिंहासन सोइया सपने भया भिखारी।
अछत राज बिछुरत दुखु पाइया, सो गति भई हमारी॥

धर्मदास––ये बॉंधवगढ़ के रहने वाले और जाति के बनिए थे। बाल्यावस्था से ही इनके हृदय में भक्ति का अंकुर था और ये साधुओं का सत्संग, दर्शन, पूजा, तीर्थाटन आदि किया करते थे। मथुरा से लौटते समय कबीरदास के साथ इनका साक्षात्कार हुआ। उन दिनों संत समाज में कबीर की पूरी प्रसिद्धि हो चुकी थी। कबीर के मुख से मूर्तिपूजा, तीर्थाटन, देवार्चन आदि का खंडन सुनकर इनका झुकाव 'निर्गुण संत मत' की ओर हुआ। अंत में ये कबीर से सत्यनाम की दीक्षा लेकर उनके प्रधान शिष्यों में हो गए और संवत् १५७५ में कबीरदास के परलोकवास पर उनकी गद्दी इन्हीं को मिली। कहते हैं