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हिंदी-साहित्य का इतिहास

शब्द मिले तो उस स्थान-विशेष से कवि का निवास-संबंध मानना चाहिए। इस दृष्टि से देखने पर यह बात मन में बैठ जाती हैं कि तुलसीदास का जन्म राजापुर में हुआ जहाँ उनकी कुमार अवस्था बीती। सरवरिया होने के कारण उनके कुल के तथा संबंधी अयोध्या, गोंडा, बस्ती के आसपास थे, जहाँ उनका आना-जाना बराबर रहा करता था‌। विरक्त होने पर वे अयोध्या में ही रहने लगे थे। 'रामचरितमानस' में आए हुए कुछ शब्द और प्रयोग नीचे दिए जाते है जो अयोध्या के आसपास ही (बस्ती, गोंडा आदि के कुछ भागों में) बोले जाते है––

माहुर=विष। सरौं=कसरत; फहराना या फरहराना=प्रफुल्लचित्त होना (सरौं करहिं पायक फहराई)। फुर=सच। अनभल ताकना=बुरा मानना (जेहि राउर अति अनभल ताका)। राउर, रउरेहि=आपको (भलउ कहत दुख रउरेहि लागा)। रमा लहीं=रमा ने पाया (प्रथम पुरुष, स्त्री॰, बहुवचन; उ॰––भरि जनम जे पाए न ते परितोष उमा रमा लही)। कूटि=दिल्लगी, उपहास।

इसी प्रकार ये शब्द चित्रकूट के आसपास तथा बघेलखंड में ही (जहाँ की भाषा पूरबी हिंदी या अवधी ही है) बोले जाते हैं––

कुराय=वे गड्ढे जो करेल (पोली जमीन) में बरसात के कारण जगह-जगह पड़ जाते है (काँच कुराय लपेटन लोटन ठाँवहिं ठाँव बझाऊ रे।––विनय॰)।

सुआर=सूपकार, रसोइया।

ये शब्द और प्रयोग इस बात का पता देते है कि किन-किन स्थानों की बोली गोस्वामीजी की अपनी थी। आधुनिक काल के पहले साहित्य या काव्य की सर्वमान्य व्यापक भाषा ब्रज ही रही है, यह तो निश्चित है। भाषा-काव्य के परिचय के लिये प्रायः सारे उत्तर भारत के लोग बराबर इसका अभ्यास करते थे और अभ्यास द्वारा सुंदर रचना भी करते थे। ब्रजभाषा में रीतिग्रंथ लिखनेवाले चिंतामणि, भूषण, मतिराम, दास इत्यादि अधिकतर कवि अवध के थे और ये ब्रजभाषा के सर्वमान्य कवि माने जाते हैं। दासजी ने तो स्पष्ट व्यवस्था ही दी है कि 'ब्रजभाषा हेतु ब्रजवास ही न अनुमानौ'। पर पूरबी