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हिंदी-साहित्य का इतिहास

त्रेता काव्य-निबध करी सत कोटि रमायन। इक अक्षर उच्चरे ब्रह्महत्यादि-परायन॥
अब भक्तन सुखदैन बहुरि लीला बिस्तारी। रामचरनरसमत्त रहत अहनिसि व्रतधारी॥

संसार अपार के पार को सुगम रूप नौका लियो।
कलि कुटिल जीव निस्तार-हितवालमीकि तुलसी भयो॥

अपने गुरु अग्रदास के समान इन्होने भी रामभक्ति-संबंधिनी कविता की है। ब्रजभाषा पर इनका अच्छा अधिकार था और पद्यरचना में अच्छी निपुणता थी। रामचरित-संबधी इनके पदों एक छोटा-सा संग्रह अभी थोडे दिन हए प्रास हुआ है।

इन पुस्तकों के अतिरिक्त इन्होने दो 'अष्टयाम' भी बनाए––एक ब्रजभाषा-गद्य में दूसरा रामचरितमानस की शैली पर दोहा-चौपाइयों में। दोनो के उदाहरण नीचे दिए जाते है––

(गद्य)––तब श्री महाराजकुमार प्रथम श्री वसिष्ठ महाराज के चरन छुइ प्रनाम करत भए। फिरि अपर वृद्ध समाज तिनको प्रनाम करत भए। फिरि श्री राजाधिराज जू को जोहार करिकै श्री महेंद्रनाथ दशरथ जू के निकट बैठत भए।

(पद्य)––

अवधपुरी की सोभा जैसी। कहि नहिं सकहिं शेष श्रुति तैसी॥
रचित कोट कलधौत सुहावन। विविध रंग मति अति मन भावन॥
चहुँ दिसि विपिन प्रमोद अनूपा। चतुरवीस जोजन रस रूपा॥
सुदिसि नगर सरजू सरि पावनि। मनिमय तीरथ परम सुहावनि॥
विगसे जलजा, भृंग रसभूले। गुजत जल समूह दोउ कूले॥

परिखा प्रति चहुँ दिसि लसति, कंचन कोट प्रकास।
विविध भाँति नग जगमगत, प्रति गोपुर पुर पास॥

(४) प्राणचंद्र चौहान––संस्कृत में रामचरित-संबंधी कई नाटक हैं जिनमें कुछ तो नाटक के साहित्यिक नियमानुसार है और कुछ केवल संवाद-रूप में होने के कारण नाटक कहे गए है। इसी पिछली पद्धति पर संवत् १६६७ में इन्होने रामायण महानाटक लिखा। रचना का ढंग नीचे उद्धृत अंश से ज्ञात हो सकता है––