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हिंदी-साहित्य का इतिहास

उसके प्रिय भगवान् का मनोहर रूप सामने आ जाता है और वह पुलकित हो उठता है। भीतर का 'चित्' जब बाहर 'सत्' का साक्षात्कार कर पाता है तब 'आनंद' का आविर्भाव होता है और 'सदानंद' की अनुभूति होती है।

यह हैं उस सगुण भक्तिमार्ग का प्रकृत पक्ष जो भगवान् के अवतार को लेकर चलता है और जिसका पूर्ण विकास तुलसी की रामभक्ति में पाया जाता है। 'विनयपत्रिका' में गोस्वामीजी ने लोक में फैले अधर्म, अनाचार, अत्याचार आदि का भीषण चित्र खींचकर भगवान् से अपना सत्स्वरूप, धर्मसंस्थापक स्वरूप, व्यक्त करने की प्रार्थना की है। उन्हें दृढ़ विश्वास है कि धर्म-स्वरूप भगवान् की कला का कभी न कभी दर्शन होगा। अतः वे यह भावना करके पुलकित हो जाते है कि सत्स्वरूप का लोकव्यक्त प्रकाश हो गया, रामराज्य प्रतिष्ठित हो गया और चारों ओर फिर मंगल छा गया।

रामराज भयो काज सगुन सुभ, राजा राम जगत-विजई हैं।
समरथ बड़ो सुजान सुसाहब, सुकृत-सेन हारत जितई हैं॥

जो भक्ति-मार्ग श्रद्धा के अवयव को छोड़कर केवल प्रेम को ही लेकर चलेगा, धर्म से उसका लगाव न रह जायगा। वह एक प्रकार से अधूरा रहेगा। शृंगारोपासना, माधुर्य्यभाव आदि की ओर उसका झुकाव होता जायगा और धीरे धीरे उसमें 'गुह्य, रहस्य' आदि का भी समावेश होगा‌। परिणाम यह होगा कि भक्ति के बहाने विलासिता और इंद्रियासक्ति की साधना होगी। कृष्णभक्ति शाखा कृष्ण भगवान् के धर्मस्वरूप को––लोकरक्षक और लोकरंजक स्वरूप को––छोड़कर केवल मधुर स्वरूप और प्रेमलक्षणा भक्ति की सामग्री लेकर चली। इससे धर्म-सौंदर्य के आकर्षण से वह दूर पड़ गई। तुलसीदासजी ने भक्ति को अपने पूर्ण रूप से, श्रद्धा-प्रेम-समन्वित रूप में,सबके सामने रखा और धर्म या सदाचार को उसका नित्य-लक्षण निर्धारित किया।

अत्यंत खेद की बात है कि इधर कुछ दिनों से एक दल इस राजभक्ति को भी शृंगारी भावनाओं में लपेटकर विकृत करने में जुट गया है। तुलसीदासजी के प्रसंग में हम दिखा आए हैं कि कृष्णभक्त सूरदासजी की शृंगारी रचना का कुछ अनुकरण गोस्वामीजी की 'गीतावली' के उत्तरकाड में दिखाई पड़ता है, पर वह केवल आनंदोत्सव तक रह गया है। इधर आकर कृष्णभक्ति शाखा