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कृष्णभक्ति-शाखा

'राधा राधा' रटने लगती हैं। फिर जब होश में आती है तब कृष्ण के विरह से संतप्त होकर फिर 'कृष्ण कृष्ण' करने लगती है। इस प्रकार अपनी सुध में रहती हैं तब भी, नहीं रहती हैं तब भी, दोनों अवस्थाओं में उन्हें विरह का ताप सहना पड़ता है। उनकी दशा उस लकड़ी के भीतर के कीड़े की सी रहती है। जिसके दोनों छोरो पर आग लगी हो। अब इसी भाव का सूर का यह पद देखिए––

सुनौं स्याम! यह बात और कोउ क्यों समझायं कहै।
दुहुँ दिसि की रति बिरह बिरहिनी कैसे कै जो सहै॥
जब राधे, तब ही मुख 'माधौ माधौ' रटति रहैं।
जब माधौं ह्वै जाति, सकल तनु राधा-विरह दहै॥
उभय अग्र दव दारुकीट ज्यों सीतलताहि चहै।
सूरदास अति विकल बिरहिनी कैसेहु सुख न लहै॥

(सूरसागर, पृ० ५६४, वेंकटेश्वर)

'सूरसागर' में जगह-जगह दृष्टिकूट वाले पद मिलते है। यह भी विद्यापति का अनुकरण है। 'सारंग' शब्द को लेकर सूर ने कई जगह कूट पद कहे है। विद्यापति की पदावली में इसी प्रकार का एक कूट देखिए––

सारँग नयन, बयन पुनि सारँग, सारँग तसु समधाने।
सारँग उपर उगल दस सारँग केलि करथि मधु पाने॥

पच्छिमी हिंदी बोलनेवाले सारे प्रदेशों में गीतों की भाषा ब्रज ही थी। दिल्ली के आस-पास भी गीत ब्रजभाषा में ही गाए जाते थे, यह हम खुसरो (संवत् १३४०) के गीतों में दिखा आए है। कबीर (संवत् १५६०) के प्रसंग में कहा जा चुका है कि उनकी 'साखी' की भाषा तो 'सधुक्कड़ी' हैं, पर पदों की भाषा काव्य में प्रचलित ब्रजभाषा है। यह एक पद तो कबीर और सूर दोनो की रचनाओं के भीतर, ज्यों का त्यों मिलता है––

हे हरिभजन को परवाँन। नीच पावै ऊँच पदवी, बाजते नीसान।
भजन को परताप ऐसो तिरे जन पाषान। अधम भील, अजाति गनिका चढ़े जात बिवाँन॥