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हिंदी-साहित्य का इतिहास


में भी जो मनोहर और छलकाते हुए चित्र हैं वे भी सच्चे हैं-कल्पना के झूठे खेल नहीं है। उनमें भारतीय प्रेम-जीवन की सच्ची झलक है।

भाषा पर तुलसी का सा ही अधिकार हम रहीम का भी पाते हैं। ये ब्रज और अवधी-पच्छिमी और पूरबी–दोनों काव्य-भाषाओं में समान कुशल थे। 'बरवै नायिका भेद' बड़ी सुंदर अवधी भाषा में हैं। इनकी उक्तियाँ ऐसी लुभावनी हुई कि बिहारी आदि परवर्ती कवि भी बहुत का अपहरण करने का लोभ न रोक सके। यद्यपि रहिम सर्वसाधारण में अपने दोहों के लिये ही प्रसिद्ध है पर इन्होंने बरवै, कवित्त, सवैया, सोरठा, पद-सब में थोड़ी-बहुत रचना की है।

रहीम का देहावसान संवत् १६८३ में हुआ। अब तक इनके निम्नलिखित ग्रंथ ही सुने जाते थे-रहीम दोहावली या सतसई, बरवै नायिका-भेद, शृंगार सोरठ, मदनाष्टक, रासपंचाध्यायी। पर भरतपुर के श्रीयुत पंडित मयाशंकरजी याज्ञिक ने इनकी और भी रचनाओं का पता लगाया है-जैसे नगर-शोभा, फुटकले बरवै, फुटकल कवित्त सवैये-और रहीमम का एक पूरा संग्रह 'रहीम-रत्नावली' के नाम से निकाला है।

कहा जा चुका है कि ये कई भाषाओं और विद्याओं में पारंगत थे। इन्होंने फारसी का एक दीवान भी बनाया था और "वाक्आत-बाबरी" का तुर्की से फारसी में अनुवाद किया था। कुछ मिश्रित रचना भी इन्होंने की है-'रहीम-काव्य' हिंदी-संस्कृत की खिचड़ी है। और 'खेट कौतुम्' नामक ज्योतिष का ग्रंथ संस्कृत और फारसी की खिचड़ी है। कुछ संस्कृत श्लोकों की रचना भी ये कर गए हैं। इनकी रचना के कुछ नमूने दिए जाते है-

(सतसई या, दोहावली से)

दुरदिन परे रहीम कह, भूलत सब पहिचानि।
सोच नहीं हित-हानि को, जौ न होय हित-हानि॥
कोउ रहीम जनि काहु के द्वार गए पछिताय।
संपति के सत्र जात हैं, बिपति सबै लै जाय॥