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सामान्य परिचय

और उद्भट के समय में थी; उस उत्तर दशा का नहीं जो आंनदवर्धनाचार्य, मम्मट और विश्वनाथ द्वारा विकसित हुई। भामह और उद्भट के समय में अलंकार और 'अलंकार्य' का स्पष्ट भेद नहीं हुआ था; रस, रीति, अलंकार आदि सब के लिये 'अलंकार' शब्द का व्यवहार होता था। यही बात हम केशव की 'कविप्रिया' में भी पाते हैं। उसमें 'अलंकार' के 'सामान्य' और 'विशेष' दो भेद करके, 'सामान्य' के अंतर्गत वर्ण्य विषय और 'विशेष' के अंतर्गत वास्तविक अलंकार रखे गए है। (विशेष दे० केशवदास)

पर केशवदास के उपरांत तत्काल रीतिग्रंथों की परंपरा चली नही। कविप्रिया के ५० वर्ष पीछे उसकी अखंड परंपरा का आरंभ हुआ। यह परंपरा केशव के दिखाए हुए पुराने आचार्यों (भामह, उद्भट आदि) के मार्ग पर न चलकर परवर्ती आचार्यों के परिष्कृत मार्ग पर चली जिसमें अंलकार-अलंकार्य का भेद हो गया था। हिंदी के अलंकार-ग्रंथ अधिकतर 'चद्रांलोक' और 'कुवलयानंद' के अनुसार निर्मित हुए। कुछ ग्रथों में 'काव्यप्रकाश' और 'साहित्यदर्पण' का भी आधार पाया जाता है। काव्य के स्वरूप और अंगों के संबंध में हिंदी के रीतिकार कवियों ने संस्कृत के इन परवर्ती ग्रंथों का मत ग्रहण किया। इस प्रकार दैव योग से संस्कृत साहित्य-शास्त्र के इतिहास की एक संक्षिप्त उद्धरणी हिंदी में हो गई।

हिंदी रीतिग्रंथो की अखंड परंपरा चिंतामणि त्रिपाठी से चली, अतः रीति-काल का आरंभ उन्हीं से मानना चाहिए। उन्होंने संवत् १७०० के कुछ आगे पीछे 'काव्यविवेक', 'कविकुल-कल्पतरु' और 'काव्य-प्रकाश' ये तीन ग्रंथ लिख-कर काव्य के अब अंगों को पूरा निरूपण किया और पिंगल या छदः शास्त्र पर भी एक पुस्तक लिखी। उसके उपरांत तो लक्षणग्रथों की भरमार सी होने लगी। ‌ कवियों ने कविता लिखने की यह एक प्रणाली ही बना ली ‌कि पहले दोहे में अलंकार या रस का लक्षण लिखना फिर उसके उदाहरण के रूप में कवित्त या सवैया लिखना। हिंदी-साहित्य में यह एक अनूठा दृश्य खड़ा हुआ। संस्कृत साहित्य में कवि और आचार्यों दो भिन्न-भिन्न श्रेणियों के व्यक्ति रहे। हिंदी-काव्यक्षेत्र में, यह भेद लुप्त सा हो गया। इस एकीकरण का प्रभाव अच्छा नहीं पड़ा। आचार्यत्व के लिये जिस सूक्ष्म विवेचन और पर्यालोचन-शक्ति की