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रीति-ग्रंथकार कवि


सारस के नादन को, बाद ना सुनात कहूँ,
नाहक ही बकवाद दादुर महा करै।
श्रीपति सुकवि जहाँ ओज ना सरोजन की,
फुल न फुलत जाहि चित दै चहा करै॥
बकन की बानी की बिराजति है राजधानी,
काई सों कलित पानी फेरत हह्वा करै।
घोंघन के जाल, जामे नरई सेवाल व्याल,
ऐसे पापी ताल को, मराल लै कहा करे?


घूँघट-उदयगिरिवर तें निकसि रूप,
सुधा सों कलित छवि-कीरति बगारो है।
हरिन डिठौना स्याम सुख सील बरपत,
करपन सोक, अति तिमिर विदारो है॥
श्रीपति बिलोकि सौति-बारिज मलिन होत,
हरषि कुमुद फूलै नंद को दुलारो है।
रजन मदन, तन गंजन विरह, बिवि,
खंजन सहित चंदवदन तिहारो है॥

(१८) वीर––ये दिल्ली के रहनेवाले श्रीवास्तव कायस्थ थे। इन्होंने "कृष्णचंद्रिका" नामक रस और नायिकाभेद का एक ग्रंथ संवत् १७७९ में लिखा। कविता साधारण है। वीररस का एक कवित्त देखिए––

अरुन बदन और फरकैं बिसाल बाहु,
कौन को हियो है करै सामने जो रुख को।
प्रबल प्रचंड निसिचर फिरै धाए,
धूरि चाहत मिलाए दसकध-अंध मुख को॥
चमकै समरभूमि बरछी, सद्स फन,
कहत पुकारे लक-अक दीह दुख को।
बलकि बलकि बोलैं वीर रघुवर धीर,
महि पर मीडि मारौं आज दसमुख को॥