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हिंदी-साहित्य का इतिहास

की रचना की है। भाषा में मंजुलता और लालित्य है। हृत्व वर्णों की मधुर योजना इन्होंने बड़ी सुंदर की है। यदि अपने ग्रंथ को इन्होंने भानमती का पिटारा न बनाया होता और एक ढंग पर चले होते तो इनकी बड़े कवियों की सी ख्याति होती, इसमें संदेह नहीं। इनकी रचना के दो नमूने देखिए––

दासन पै दाहिनी परम हंसवाहिनी हौ,
पोथी कर, बीना सुरमंडल मढ़त है।
आसन कँवल, अंग अंबर धवल,
मुख चंद सो अवँल, रंग नवल चढ़त है॥
ऐसी मातु भारती की आरती करत थान,
जाको जस बिधि ऐसो पंडित पढ़त है।
ताकी दया-दीठि लाख पाथर निराखर के,
मुख ते मधुर मंजु आखर कढ़त है॥


कलुष-हरनि सुख-करनि सरनजन,
बरनि बरनि जस कहत धरनिधर।
कलिमल-कलित बलित-अध खलगन,
लहत परमपद कुटिल कपटतर॥
मदन-कदम सुर-सदन बदन ससि,
अमल नवल दुति भजन भगतधर।
सुरसरि! तब जल दरस परस करि,
सुर सरि सुभगति लहत अधम नर॥

(४७) बेनी बंदीजन––ये बैंती (जिला रायबरेली) के रहनेवाले थे और अवध के प्रसिद्ध वजीर महाराज टिकैतराय के आश्रय में रहते थे। उन्हीं के नाम पर इन्होंने "टिकैतराय प्रकाश" नामक अलंकार-ग्रंथ संवत् १८४९ में बनाया। अपने दूसरे ग्रंथ "रसविलास" में इन्होंने रस-निरूपण किया है। पर ये अपने इन दोनों ग्रंथों के कारण इतने प्रसिद्ध नहीं है जितने