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रीतिकाल के अन्य कवि

का लाभ न हुआ। यदि बिहारी ने जयसिंह की प्रशंसा में ही अपने सात सौ दोहे बनाए होते तो उनके हाथ केवल अशर्फियाँ ही लगी होती। संस्कृत और हिंदी के न जाने कितने कवियों का प्रौढ़ साहित्यिक श्रम इस प्रकार लुप्त हो गया। काव्यक्षेत्र में यह एक शिक्षाप्रद घटना हुई है।

भक्तिकाल के समान रीतिकाल में भी थोड़ा बहुत गद्य इधर-उधर दिखाई पड़ जाता हैं पर अधिकांश कच्चे रूप में। गोस्वामियों की लिखी 'वैष्णववार्ताओं' के समान कुछ पुस्तकों में ही पुष्ट ब्रजभाषा मिलती है। रही खड़ी बोली। वह पहले कुछ दिनों तक तो मुसलमानों के व्यवहार की भाषा समझी जाती रहीं। मुसलमानों के प्रसंग में उसका कभी-कभी प्रयोग कवि लोग कर देते थे, जैसे––अफजल खान को जिन्होंने मैदान मारा (भूषण)। पर पीछे दिल्ली राजधानी होने से रीतिकाल के भीतर ही खड़ी बोली शिष्ट समाज के व्यवहार की भाषा हो गई थी और उसमें अच्छे गद्य ग्रंथ लिखे जाने लगे थे। संवत् १७९८ में रामप्रसाद निरंजनी ने 'योगवासिष्ठ भाषा' बहुत ही परिमार्जित गद्य में लिखा। (विशेष दे॰ आधुनिक काल)।

इसी रीतिकाल के भीतर रीवाँ के महाराज विश्वनाथसिंह ने हिंदी का प्रथम नाटक (आनंदरघुनंदन) लिखा। इसके उपरांत गणेश कवि ने 'प्रद्युम्न-विजय' नामक एक पद्यबद्व नाटक लिखा जिसमें पात्रप्रवेश, विष्कंभक, प्रवेशक आदि रहने पर भी इतिवृत्तात्मक पद्य रखे जाने के कारण नाटक का प्रकृत स्वरूप न दिखाई पड़ा।


(१) बनवारी––ये संवत् १६९० और १७०० के बीच वर्तमान थे। इनका विशेष वृत्त ज्ञात नहीं। इन्होंने महाराज जसवंतसिंह के बड़े भाई अमरसिंह की वीरता की बड़ी प्रशंसा की है। यह इतिहास-प्रसिद्ध बात है कि एक बार शाहजहाँ के दरबार में सलाबतखाँ ने किसी बात पर अमरसिंह को गँवार कह दिया, जिस पर उन्होंने चट तलवार खींचकर सलावतखाँ को वही मार डाला। इस घटना का बड़ा ओजपूर्ण वर्णन, इनके इन पद्यों में मिलता है––

धन्य अमर छिति छत्रपति, अमर तिहारो मान।
साहजहाँ की गोद में, इन्यो सलावत खान।