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हिंदी-साहित्य का इतिहास

बाहर की बोली=अरबी, फारसी, तुरकी। गँवारी=ब्रजभाषा, अवधी आदि। भाखा=संकृत के शब्दों का मेल।

इस विलगाव से, आशा है, ऊपर लिखी बात स्पष्ट हो गई होगी। इंशा ने "भाखापन" और "मुअल्लापन" दोनों को दूर रखने का प्रयत्न किया, पर दूसरी बला किसी न किसी सूरत में कुछ लगी रह गई। फारसी के ढंग का वाक्य-विन्यास कहीं कहीं, विशेषतः बड़े वाक्यों में, आ ही गया है; पर बहुत कम। जैसे––

"सिर झुकाकर नाक रगड़ता हूँ अपने बनानेवाले के सामने जिसने हम सबको बनाया"।

"इस सिर झुकाने के साथ ही दिन रात जपता हूँ उस अपने दाता के भेजे हुए प्यारे को"।

"वह चिट्ठी जो पीकभरी कुँवर तक जा पहुँची"।

आरंभ काल के चारों लेखकों में इंशा की भाषा सबसे चटकली, मुहावरेदार और चलती है। पहली बात यह है कि खड़ी बोली उर्दू-कविता में पहले से बहुत कुछ मंज चुकी थी जिससे उर्दूवालों के सामने लिखते समय मुहावरे आदि बहुतायत से आया करते थे। दूसरी बात यह है कि इंशा रंगीन और चुलबुली भाषा द्वारा अपना लेखन-कौशल दिखाया चाहते थे[१]मुंशी सदासुखलाल भी खास दिल्ली के थे और उर्दू-साहित्य का अभ्यास भी पूरा रखते थे, पर वे धर्मभाव से जान बूझकर अपनी भाषा गंभीर और संयत रखना चाहते थे। सानुप्रास विराम भी इंशा के गद्य में बहुत स्थलों पर मिलते हैं––जैसे,

"जब दोनों महाराजो में लड़ाई होने लगी, रानी केतकी सावन भादों के रूप रोने लगी, और दोनों के जी में यह आ गई––यह कैसी चाहत जिसमे लहू बरसने लगा और अच्छी बातों को जी तरसने लगा।"

इंशा के समय तक वर्तमान कृदंत या विशेषण और विशेष्य के बीच का


  1. अपनी कहानी का आरंभ ही उन्होंने इस ढंग से किया है जैसे लखनऊ के मीर घोड़ा कुदाते हुए महफिल में आते हैं।