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गद्य-साहित्य का प्रसार

पत्र में कुछ सामयिक और साहित्यिक लेख ही लिखा करते थे जो पुस्तकाकार छपकर स्थायी साहित्य में परिगणित न हो सके। अपनी गद्य शैली का निर्दिष्ट रूप इस द्वितीय उत्थान के भीतर ही उन्होंने पूर्णतया प्रकाशित किया। इनकी लेखशैली का पता इनके सम्मेलन के भाषण और "कवि और चित्रकार" नामक लेख से लगता है। गद्य के संबंध में इनकी धारणा प्राचीनों के "गद्य-काव्य" की सी थी। लिखते समय बाण और दंडी इनके ध्यान में रहा करते थे। पर यह प्रसिद्ध बात है कि संस्कृत साहित्य में गद्य का वैसा विकास नहीं हुआ। बाण और दंडी का गद्य काव्य-अलंकार की छटा दिखानेवाला गद्य था; विचारों को उत्तेजना देनेवाला, भाषा की शक्ति का प्रसार करनेवाला गद्य नहीं। विचारपद्धति को उन्नत करनेवाले गद्य का अच्छा और उपयोगी विकास यूरोपीय भाषाओं में ही हुआ। गद्यकाव्य की पुरानी रूढ़ि के अनुसरण से शक्तिशाली गद्य का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता।

पंडित गोविंदनारायण मिश्र के गद्य को समास-अनुप्रास में गुँथे शब्दगुच्छों का एक अटाला समझिए। जहाँ वे कुछ विचार उपस्थित करते हैं वहाँ भी पदच्छटा ही ऊपर दिखाई पड़ती है। शब्दावलि दोनों प्रकार की रहती है––संस्कृत की भी और ब्रजभाषा काव्य की भी। एक ओर 'प्रगल्भ प्रतिभास्रोत से समुत्पन्न शब्द-कल्पना-कलित अभिनव भावमाधुरी' है तो दूसरी ओर 'तम तोम सटकाती मुकाती पूरनचंद की सकल-मन-भाई छिटकी जुन्हाई' है। यद्यपि यह गद्य एक क्रीड़ा-कौतुक मात्र है, पर इसकी भी थोड़ी सी झलक देख लेनी चाहिए––

(साधारण गद्य का नमूना)

"परंतु मदमति अरसिकों के अयोग्य, मलिन अथवा कुशाग्रबुद्धि चतुरों के स्वच्छ मलहीन मन को भी यथोचित शिक्षा से उपयुक्त बना लिए बिना उनपर, कवि की परम रसीली उक्ति छवि-छबीली का अलंकृत नखशिख लौं स्वच्छ सर्वांग-सुंदर अनुरूप यथार्थ प्रतिबिंब कभी ना पढेगा। x x x स्वच्छ दर्पण पर ही अनुरूप, यथार्थं सुस्पष्ट प्रतिबिंबि प्रतिफलित होता है। उससे साम्हना होते ही अपनी ही प्रतिबिंबित प्रतिकृति मानों समता की स्पर्द्धा में आ, उसी समय साम्हना करने आमने-सामने आ खड़ी होती है।"