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हिंदी-साहित्य का इतिहास

समालोचना और काव्य-मीमांसा

इस तृतीय उत्थान में समालोचना का आदर्श भी बदला। गुण-दोष के कथन के आगे बढ़कर कवियों की विशेषताओं और उनकी अंतःप्रवृत्ति की छानबीन की ओर भी ध्यान दिया गया। तुलसीदास, सूरदास, जायसी, दीनदयाल गिरि और कबीरदास की विस्तृत आलोचनाएँ पुस्तकाकार और भूमिकाओं के रूप में भी निकलीं। इस इतिहास के लेखक ने तुलसी, सूर और जायसी पर विस्तृत समीक्षाएँ लिखीं जिनमें से प्रथम 'गोस्वामी तुलसी' के नाम से पुस्तकाकार छपी है, शेष दो क्रमशः 'भ्रमरगीत-सार' और 'जायसी-ग्रंथावली' में संमिलित है। स्व॰ लाला भगवानदीन की सूर, तुलसी और दीनदयाल गिरि की समालोचनाएँ उनके संकलित और संपादित 'सूर-पंचरत्न', 'दोहावली' और 'दीनदयाल गिरि ग्रंथावली' में संमिलित है। पं॰ अयोध्या सिंह उपाध्याय की कबीर-समीक्षा उनके द्वारा संगृहीत 'कबीर-वचनावली' के साथ और डाक्टर पीतांबरदत्त बड़थ्वाल की 'कबीर-ग्रंथावली' के साथ भूमिका-रूप मे सनिविष्ट है।

इसके उपरांत 'कलाओं' और 'साधनाओं' का ताँता बँधा और

(१) केशव की काव्य-कला (श्री कृष्णशंकर शुक्ल),
(२) गुप्तजी की कला (प्रो॰ सत्येंद्र),
(३) प्रेमचंद की उपन्यास-कला (पं॰ जनार्दनप्रसाद झा 'द्विज'),
(४) प्रसाद की नाट्य कला,
(५) पद्माकर की काव्य-साधना (अखौरी गंगाप्रसादसिंह),
(६) 'प्रसाद' की काव्य-साधना (श्री रामनाथ लाल 'सुमन'),
(७) मीरा की प्रेम-साधना (पं॰ भुवनेश्वरनाथ मिश्र 'माधव'),

एक दूसरे के आगे पीछे निकलीं। इनमें से कुछ पुस्तकें तो समालोचना की असली पद्धति पर निर्णयात्मक और व्याख्यात्मक दोनों ढंग लिए हुए चली हैं तथा कवि के बाह्य और आभ्यंतर दोनों का अच्छा परिचय कराती है, जैसे, 'केशव की काव्यकला', 'गुप्तजी की कला'। 'केशव की काव्यकला' में पं॰ कृष्णशंकर शुक्ल ने अच्छा विद्वत्तापूर्ण अनुसंधान भी किया है। उनका 'कविवर रत्नाकर' भी कवि की विशेषताओं को मार्मिक दंग से सामने रखता है। पं॰ गिरिजादत्त शुक्ल 'गिरीश'